राणा सांगा पर उत्तर प्रदेश में घमासान: राजनीति, विरासत और विवाद

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महाराणा संग्राम सिंह, जिन्हें राणा सांगा के नाम से जाना जाता है, मेवाड़ के ऐसे शासक थे जो भारतीय इतिहास में असाधारण वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने दिल्ली के सुल्तानों, अफगान आक्रमणकारियों और यहाँ तक कि बाबर से भी लोहा लिया। उनका शरीर 80 युद्धों के घावों का प्रतीक था—एक आँख, एक हाथ और एक पैर खोने के बावजूद उनका साहस कभी नहीं डिगा।

1527 के खानवा युद्ध में बाबर से पराजय के बावजूद, राणा सांगा ने भारतीय स्वाभिमान और हिंदवी सत्ता की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी। वे न केवल राजपूत बल्कि समूचे भारतवर्ष के सम्मान का प्रतीक हैं।

विवाद की शुरुआत: संसद से सड़कों तक फैला आक्रोश

समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन ने संसद में राणा सांगा को लेकर कहा कि उन्होंने बाबर को भारत बुलाकर ‘गद्दारी’ की। यह टिप्पणी न केवल ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत थी, बल्कि संपूर्ण राजपूत समाज की भावनाओं पर प्रहार थी।

यह बयान समाज के व्यापक तबके को आहत करने वाला था। सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया के साथ ही ज़मीनी स्तर पर करणी सेना और क्षत्रिय संगठनों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए।

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करणी सेना की प्रतिक्रिया: रक्त स्वाभिमान की हुंकार

करणी सेना, जो कि राजपूत गौरव और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए सक्रिय है, ने इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उत्तर प्रदेश के आगरा और लखनऊ जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर रैलियाँ निकाली गईं। संगठन ने इसे समाजवादी पार्टी की तुष्टिकरण नीति और हिंदू महापुरुषों के अपमान का हिस्सा करार दिया।


अखिलेश यादव का रुख: डैमेज कंट्रोल या जिद?

जब यह विवाद उफान पर था, तब अखिलेश यादव ने अपने सांसद का बचाव करते हुए कहा कि “यह इतिहास के एकपक्षीय पाठ का प्रतिरोध है।” उन्होंने करणी सेना के प्रदर्शन को भाजपा प्रायोजित बताया।

इस बयान से यह प्रतीत हुआ कि सपा राजनीतिक रूप से एक जातिगत लॉबी को खुश करने के प्रयास में राजपूत समाज की भावनाओं की अनदेखी कर रही है। इससे अखिलेश यादव की छवि एक ऐसे नेता की बन रही है जो बहुसंख्यक वर्ग को दरकिनार कर केवल वोट बैंक पर केंद्रित है।

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राजनीतिक असर: भाजपा की रणनीति और सपा की फिसलन

यह विवाद समाजवादी पार्टी के लिए कई मोर्चों पर नुकसानदायक साबित हो सकता है:

  1. राजपूत समाज की नाराजगी:
    यूपी में लाखों की संख्या में राजपूत मतदाता हैं, जो इस मुद्दे को सीधे आत्मसम्मान से जोड़कर देख रहे हैं।
  2. तुष्टिकरण की छवि गहराई:
    यह विवाद सपा पर लगे ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के आरोपों को और मज़बूत करता है।
  3. भाजपा को राजनीतिक लाभ:
    भाजपा ने इस विवाद को तुरंत भुनाया, और अपने भाषणों में ‘राजपूत अस्मिता’ को प्रमुखता से उठाया। योगी आदित्यनाथ की नीतियाँ पहले से ही हिंदुत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं, जिससे भाजपा को फायदा मिलना तय है।

क्या समाजवादी पार्टी अपनी छवि सुधार सकेगी?

सपा को यदि इस विवाद से निकलना है तो उसे खुलकर क्षमा याचना करनी होगी और राजपूत समाज के लिए समर्पित कार्यक्रम चलाने होंगे। इतिहास के विषयों पर सांसदों और नेताओं को बयानबाज़ी से पहले ऐतिहासिक तथ्यों की जांच करनी चाहिए।


हमारी राय

राणा सांगा का नाम केवल गौरवशाली इतिहास नहीं है, बल्कि वह एक चेतावनी भी हैं—राजनीतिक स्वार्थवश यदि महापुरुषों का अपमान किया जाएगा, तो उसका सामाजिक और राजनीतिक मूल्य चुकाना ही पड़ेगा।

समाजवादी पार्टी के लिए यह विवाद एक राजनैतिक झटका है, जो उसे 2027 और 2029 दोनों चुनावों में भारी पड़ सकता है। वहीं भाजपा के लिए यह एक और मौका है अपनी राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने का।


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