क्या भाजपा सरकार में मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है?
देश में बढ़ती संवेदनशीलता के बीच यह प्रश्न बार-बार उभरता है — “क्या भाजपा सरकार में मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है?” यह प्रश्न केवल एक समुदाय की पीड़ा नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की परीक्षा भी है। इस लेख में हम तथ्यों, कानूनों और व्यवहारिक घटनाओं के आधार पर इस प्रश्न का विवेचन करेंगे — बिना किसी राजनीतिक पूर्वग्रह के।
संवैधानिक सिद्धांत बनाम व्यवहारिक वास्तविकता
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की गारंटी देता है — अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 25-28 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अल्पसंख्यकों के अधिकार। लेकिन जब व्यवहार में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनता देखा जाता है, तो सवाल उठता है — क्या सरकार संविधान की मूल भावना से भटक रही है?
विवादास्पद नीतियाँ और कानून: मुस्लिम दृष्टिकोण से
i. CAA और NRC:
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) 2019 में मुस्लिम शरणार्थियों को बाहर रखने का आरोप लगा। सरकार ने स्पष्ट किया कि यह कानून ‘धर्म के आधार पर प्रताड़ित’ अल्पसंख्यकों की मदद के लिए है, लेकिन मुस्लिम समुदाय इसे अपने खिलाफ मानता है।
ii. ट्रिपल तलाक कानून:
भले ही इस कानून को मुस्लिम महिलाओं के हक में बताया गया हो, पर यह समुदाय के धार्मिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप का प्रतीक भी माना गया।
iii. UAPA और टारगेटेड गिरफ़्तारियाँ:
आतंकवाद निरोधक क़ानून UAPA के तहत मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी में वृद्धि देखी गई है। अदालतें वर्षों बाद बरी करती हैं, पर तब तक जीवन का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका होता है।
वक्फ बोर्ड और भूमि विवाद
वक्फ अधिनियम संशोधन और कई राज्यों में वक्फ संपत्तियों की जांच ने मुस्लिम संगठनों में असुरक्षा की भावना को जन्म दिया। भूमि की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर इसे राजनीतिक मोहरा बनाया गया?
बुलडोज़र कार्रवाई और ‘एकतरफा न्याय’
उत्तर प्रदेश, दिल्ली और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बिना न्यायिक आदेश के मुसलमानों के घर और दुकानों पर बुलडोज़ चलाया गया। प्रशासन का दावा ‘अवैध निर्माण’ का था, पर टाइमिंग और लक्ष्य समुदाय-स्पष्ट थे।
पुलिस और प्रशासनिक टार्गेटिंग
कई विरोध प्रदर्शनों (CAA, नमाज़, हिजाब आदि) में पुलिस कार्रवाई विशेष रूप से मुस्लिम प्रदर्शनकारियों पर केंद्रित रही। इसमें गिरफ्तारी, दमन और मीडिया ट्रायल शामिल है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व में गिरावट
वर्तमान भाजपा सरकार में मुस्लिम सांसदों और विधायकों की संख्या ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम है। यह असमान प्रतिनिधित्व लोकतंत्र की समरसता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
सरकारी नीतियों का दोहरा मापदंड?
जब समान अपराध दो अलग-अलग समुदायों द्वारा किए जाते हैं, तो प्रतिक्रिया और कार्रवाई में भिन्नता क्यों? यही असमानता “सिर्फ मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है” जैसी धारणाओं को जन्म देती है।
विरोधी तर्क: क्या यह सिर्फ ‘विक्टिम कार्ड’ है?
सरकार और भाजपा समर्थकों का तर्क है कि “कानून सबके लिए समान है, अपराधी की कोई जात या मजहब नहीं होती।” कुछ लोग इसे ‘विक्टिम कार्ड’ भी मानते हैं, जिससे सरकार को बदनाम किया जा सके।
ध्रुवीकरण से आगे बढ़ने की ज़रूरत
सत्य शायद बीच में है। कुछ नीतियाँ अल्पसंख्यकों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं, वहीं कुछ निर्णयों की टाइमिंग, क्रियान्वयन और मीडिया हाइप — सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करते हैं।
भारत को आगे बढ़ना है तो “हमें” और “उन्हें” की राजनीति से ऊपर उठकर संवैधानिकता, समानता और न्याय के सिद्धांतों को व्यवहार में लाना होगा।
हमारा संविधान सबको समान अवसर, न्याय और सम्मान का अधिकार देता है। आइए हम सभी — चाहे किसी भी धर्म या विचारधारा के हों — इन मूल्यों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाएं।
इस लेख को पढ़ें, साझा करें, और भारत के भविष्य के लिए सोचने को प्रेरित करें।