“मेरे पापा ड्रम में हैँ” – लहू से लिखी एक मासूम की दास्तान

“जो चुप रहेगी ज़बान-ए-खंजर लहू पुकारेगा आस्तीन का”

मेरठ की तंग गलियों में एक मासूम की आवाज़ गूंज रही थी— मेरे पापा ड्रम में हैँ लेकिन दुनिया इतनी शोर में डूबी थी कि किसी ने उसे सुना ही नहीं। सौरभ राजपूत, जो मर्चेंट नेवी में अपनी जिंदगी का हर लम्हा समंदर की लहरों से लड़ते गुजारते थे, अपने घर की चट्टानों से हार गए। वे अपनी छह साल की बेटी का जन्मदिन मनाने लंदन से लौटे थे, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि यह उनकी अंतिम यात्रा होगी।

“हक़ीक़त छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से,
ख़ुशबू आ नहीं सकती काग़ज़ के फूलों से।”

पत्नी मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल शुक्ला ने मिलकर न केवल उनका कत्ल किया, बल्कि उनके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इंसान नेवानिर्मित ईंटों की तरह काटकर रख दिया गया—पंद्रह हिस्सों में। एक ड्रम में ठूंसा, सीमेंट से सील किया, और समझ लिया कि हकीकत दफन हो गई। लेकिन हकीकत कब तक दफन रहती है

“हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया,
न कहीं जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।”

वह नन्हीं बच्ची, जिसे अभी तक दुनिया की कड़वाहट का स्वाद नहीं चखना चाहिए था, कहती रही—”पापा ड्रम में हैं…” उसकी आवाज़ में वो कंपन था, जिसे सुनकर आसमान भी कांप जाए, लेकिन इंसानों के दिल नहीं पिघले।

जब शव घर पहुंचा, तो मां और बहन के सब्र का बांध टूट गया—”कम से कम चेहरा तो देखने दो!” लेकिन वह चेहरा अब सिर्फ यादों में रह गया, उन सपनों की तरह जो सुबह होते ही बिखर जाते हैं।

यह हत्या नहीं, इंसानियत का जनाज़ा था

रिश्तों का ऐसा क़त्ल कि गंगा भी अपना पानी मैला समझे। यह घटना सिर्फ एक परिवार का दर्द नहीं, पूरे समाज के मरते ज़मीर का मर्सिया है। अब भी वक़्त है, हम जाग जाएं। वरना आने वाली नस्लें हमसे पूछेंगी—”क्या कोई इंसान था वहाँ, जब एक मासूम चीख़ रही थी?”पत्नी मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल शुक्ला ने मिलकर न केवल उनका कत्ल किया, बल्कि उनके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इंसान नेवानिर्मित ईंटों की तरह काटकर रख दिया गया—पंद्रह हिस्सों में। एक ड्रम में ठूंसा, सीमेंट से सील किया, और समझ लिया कि हकीकत दफन हो गई। लेकिन हकीकत कब तक दफन रहती है?

वह नन्हीं बच्ची, जिसे अभी तक दुनिया की कड़वाहट का स्वाद नहीं चखना चाहिए था, कहती रही— मेरे पापा ड्रम में हैँ उसकी आवाज़ में वो कंपन था, जिसे सुनकर आसमान भी कांप जाए, लेकिन इंसानों के दिल नहीं पिघले।

जब शव घर पहुंचा, तो मां और बहन के सब्र का बांध टूट गया—”कम से कम चेहरा तो देखने दो!” लेकिन वह चेहरा अब सिर्फ यादों में रह गया, उन सपनों की तरह जो सुबह होते ही बिखर जाते हैं।

अब भी वक़्त है, हम जाग जाएं। वरना आने वाली नस्लें हमसे पूछेंगी—”क्या कोई इंसान था वहाँ, जब एक मासूम चीख़ रही थी?