कांग्रेस नेतृत्व सरकारों की इज़रायल से दूरी का एक कड़वा सच

कांग्रेस नेतृत्व सरकारों की इज़रायल से दूरी का एक कड़वा सच

जवाहर लाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक, कांग्रेस नेतृत्व सरकारों की इज़रायल से दूरी का कडवा सच क्या है? आइये इसको समझते हैं.

भारत और इज़रायल—दो स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र—1947-48 में लगभग एक ही समय पर अस्तित्व में आए।

एक नेहरू के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता की ओर चला, जबकि दूसरा पश्चिम समर्थित राष्ट्र बनकर उभरा।

लेकिन इन दोनों के कूटनीतिक संबंधों की गति हमेशा असमान और संदिग्ध रही।

इसका मूल कारण क्या था? क्या यह केवल गुटनिरपेक्षता की नीति थी,

या इसके पीछे कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण पर आधारित वोटबैंक राजनीति थी?

यह लेख इस संबंध को ऐतिहासिक दृष्टि, राजनीतिक विवेचना और स्पष्ट प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करता है।

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नेहरू युग :

पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, और उन्होंने भारत की विदेश नीति को एक नैतिकतावादी आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।

उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना की, जिसमें भारत– अमेरिका और सोवियत यूनियन दोनों से समान दूरी बनाए रखना चाहता था।

लेकिन इसी गुटनिरपेक्षता की ओट में उन्होंने इज़रायल के साथ कूटनीतिक संबंधों से बचने की नीति अपनाई।

1950 में इज़रायल ने भारत में कौंसुल ऑफिस खोलने की अनुमति माँगी।

नेहरू सरकार ने इसकी अनुमति दी, लेकिन इसे गोपनीय और सीमित अधिकारों वाला रखा गया।

कौंसुल ऑफिस क्या होता है, और इसकी महत्ता क्या थी?

कौंसुल ऑफिस किसी देश का एक छोटा राजनयिक कार्यालय होता है जो मुख्य रूप से:

  • अपने नागरिकों की सुरक्षा,
  • वीज़ा और व्यापार संबंधी गतिविधियों,
  • सांस्कृतिक और वाणिज्यिक संबंधों को सुविधाजनक बनाने में कार्य करता है।

यह पूर्ण दूतावास नहीं होता, लेकिन संबंधों को बढ़ाने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता है।

इज़रायल को केवल कौंसुल स्तर की उपस्थिति की अनुमति देना यह दर्शाता है कि,

भारत ने इज़रायल से पूरी तरह संबंध स्थापित करने से परहेज़ किया,

और इसे एक ‘गोपनीय और प्रतीकात्मक’ स्तर तक सीमित रखा गया।

नेहरू को डर था कि यदि भारत इज़रायल के साथ खुले संबंध स्थापित करता है, तो देश के मुसलमानों में रोष पैदा होगा।

यही वह बिंदु था जहां गुटनिरपेक्षता से अधिक मुस्लिम भावनाओं की राजनीति प्रभावी होने लगी।

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इंदिरा गांधी: वामपंथी प्रभाव और मुस्लिम तुष्टीकरण का संगम

इंदिरा गांधी के शासनकाल (1966-1977, 1980-1984) में भारत की विदेश नीति वामपंथी झुकाव के कारण अधिकाधिक अरब समर्थक बनती चली गई।

उनकी सरकार ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) को वैध मान्यता दी,

और फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात को भारत में विशेष सम्मान दिया।

यह सब उस समय हुआ जब इज़रायल ने भारत को गुप्त रूप से रक्षा तकनीक, कृषि मॉडल,

और आतंकवाद विरोधी तकनीक प्रदान करनी शुरू कर दी थी।

लेकिन सार्वजनिक रूप से कांग्रेस सरकार ने इज़रायल के नाम तक का उल्लेख करने से परहेज़ किया।

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राजीव गांधी: आधुनिकता का भ्रम, लेकिन इज़रायल से दूरी

राजीव गांधी का कार्यकाल (1984–1989) तकनीकी प्रगति और युवा नेतृत्व के प्रतीक के रूप में प्रचारित हुआ।

लेकिन विदेश नीति में उन्होंने इज़रायल के प्रति कोई विशेष पहल नहीं की।

  • यह वही दौर था जब भारत की आंतरिक राजनीति मुस्लिम समुदाय के दबाव में निर्णय लेने लगी थी।
  • 1985 में शाहबानो केस आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक वृद्ध मुस्लिम महिला को भरण-पोषण देने का निर्णय दिया।
  • इस निर्णय का मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भारी विरोध किया।
  • राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद अधिकार) अधिनियम, 1986 पारित कर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलट दिया।

यह घटना कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा थी।

इसी मानसिकता के चलते इज़रायल से दूरी बनाए रखना राजीव गांधी की विदेश नीति की अपरिहार्यता बन गई थी।

उन्होंने इज़रायल के साथ संबंध सुधारने की कोई पहल नहीं की, जबकि तकनीकी और सामरिक दृष्टि से यह समय अनुकूल था।


नरसिंह राव सरकार: संबंध तो बने, पर पर्दे के पीछे

1991 में जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने, तब भारत की अर्थव्यवस्था संकट में थी।

वैश्विक स्तर पर भी शीत युद्ध का अंत हो चुका था।

राव सरकार ने 1992 में इज़रायल के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित किए।

यह एक ऐतिहासिक क्षण था, लेकिन इसे कांग्रेस ने कभी राजनीतिक उपलब्धि के रूप में प्रचारित नहीं किया। क्यों?

क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व जानता था कि यदि इज़रायल से मित्रता की सार्वजनिक घोषणा की गई,

तो मुस्लिम संगठनों और उनके धार्मिक नेताओं का विरोध झेलना पड़ेगा।

कांग्रेस ने संबंध तो बनाए, लेकिन उन्हें छुपा कर रखा।

यह इस बात का प्रमाण है कि राजनीतिक मजबूरी और वोटबैंक की राजनीति ने भारत की कूटनीति पर कैसे लगाम लगाई।


मनमोहन सिंह युग

2004 से 2014 तक यूपीए सरकार के समय भारत और इज़रायल के बीच,

रक्षा, कृषि, साइबर सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी रणनीति में जबरदस्त सहयोग हुआ।

लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कभी भी इज़रायल की यात्रा पर नहीं गए।

इज़रायली प्रधानमंत्री भी भारत नहीं बुलाए गए।

इसकी वजह फिर वही थी—कांग्रेस नेतृत्व ने यह तय कर रखा था कि मुस्लिम मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना है।

पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके रणनीतिकारों को यह डर था कि अगर इज़रायल के साथ संबंध सार्वजनिक हुए,

तो मुस्लिम मीडिया, धर्मगुरु और संगठनों से तीखी आलोचना होगी।

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कांग्रेस को ‘फिलिस्तीन’ से लगाव और ‘इज़रायल’ से दिक्कत

फिलिस्तीन का नाम कांग्रेस ने हमेशा अपने वामपंथी विमर्श और मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए इस्तेमाल किया।

इज़रायल को वह अमेरिका का पिट्ठू, ज़ायोनी ताकतों का प्रतीक और अरब विरोधी मानकर प्रचारित करती रही।

लेकिन सच्चाई यह है कि इज़रायल ने हमेशा भारत का साथ दिया:

  • 1965 और 1971 युद्ध में भारत को गोपनीय सैन्य सहायता दी।
  • कारगिल युद्ध में तत्काल हथियार और गोला-बारूद भेजा।
  • आतंकवाद विरोधी अभियान में भारत के साथ ख़ुफ़िया सहयोग किया।

इसके बावजूद कांग्रेस ने इज़रायल के साथ कभी मंच साझा नहीं किया।

यह केवल वैचारिक दूरी नहीं थी, बल्कि संगठित मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति के आगे आत्मसमर्पण था।


मोदी सरकार और बदलाव की शुरुआत

2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद भारत ने पहली बार इज़रायल के साथ सार्वजनिक रूप से संबंधों को प्राथमिकता दी।

2017 में मोदी इज़रायल जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने।

इस यात्रा में:

  • सामरिक सहयोग,
  • जल संरक्षण,
  • स्टार्टअप और रक्षा उत्पादन के क्षेत्रों में अनेक समझौते हुए।

मोदी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की विदेश नीति अब वोटबैंक पर आधारित नहीं,

बल्कि राष्ट्रहित आधारित होगी। यह वह बदलाव था जिसकी कांग्रेस ने कभी हिम्मत नहीं की।


कांग्रेस का तुष्टीकरण और कूटनीतिक दोहरापन

नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक, कांग्रेस की इज़रायल नीति में एक स्थायी तत्व रहा—डर

यह डर था मुस्लिम नाराज़गी का, यह डर था वोटबैंक के खिसकने का, यह डर था धार्मिक संगठन के विरोध का।

और इस डर ने भारत को एक ऐसे मित्र राष्ट्र से दशकों तक दूर रखा जो हर युद्ध और संकट में उसके साथ खड़ा रहा।

इज़रायल के साथ संबंधों को लेकर कांग्रेस ने जो नीति अपनाई, वह किसी भी दृष्टि से राष्ट्रीय हित में नहीं थी।

यह तुष्टीकरण की पराकाष्ठा थी—और यही कांग्रेस की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक है।

अब जब भारत वैश्विक मंच पर अपने हितों को निर्भीकता से प्रस्तुत कर रहा है,

तो यह आवश्यक है कि अतीत की इन गलतियों को बार-बार याद किया जाए

और राजनीतिक मुस्लिमवाद को लोकतंत्र की आड़ में दोबारा पनपने से रोका जाए।

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