इज़रायल के ये अहसान भारत कैसे भूल सकता है.
भारतीय इतिहास के तीन सबसे निर्णायक और अस्तित्वपरक युद्ध—1965, 1971 और कारगिल युद्ध के पीछे कई ऐसे छिपे हुए सहयोगी रहे,
जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से मंच पर न रहते हुए भी, पर्दे के पीछे से निर्णायक भूमिका निभाई।
इनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण और लगभग अनदेखा नाम है: इज़रायल।
यहूदी राष्ट्र इज़रायल, जिसकी भारत से औपचारिक कूटनीतिक मान्यता 1992 में ही स्थापित हुई,
तीनों संकटों में इज़रायल ने भारत को वह सैन्य, खुफिया और तकनीकी सहायता दी,
जो उस समय वैश्विक राजनीति के समीकरणों में अत्यंत दुर्लभ थी।
1965 का भारत-पाक युद्ध: एक प्रारंभिक संकेत
1965 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर युद्ध भड़का,
तब भारत के लिए यह युद्ध केवल सीमाओं की रक्षा का नहीं,
बल्कि भू-राजनीतिक स्थायित्व और क्षेत्रीय संतुलन की रक्षा का प्रश्न बन गया था।
उस समय भारत और इज़रायल के बीच कोई औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं थे।
इज़रायल को भारत ने लंबे समय तक अरब देशों के दबाव में मान्यता नहीं दी थी,
क्योंकि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का हिस्सा था और मुस्लिम देशों के साथ संबंध बनाए रखने की नीति पर चल रहा था।
हालांकि, 1965 में ही इज़रायल ने भारत को एक गुप्त चैनल के माध्यम से संदेश भेजा कि यदि भारत को आपातकालीन हथियार या तकनीकी सहायता चाहिए तो इज़रायल सहयोग को तत्पर है।
इज़रायल और भारत की खुफिया एजेंसियों के बीच पहली बार अनौपचारिक संवाद की शुरुआत इसी युद्ध के बाद हुई।
हालांकि भारत ने उस समय यह सहायता सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं की,
परंतु यह प्रस्ताव भारत के कूटनीतिक और सैन्य हलकों में इज़रायल के प्रति एक सकारात्मक संकेत के रूप में दर्ज हुआ।
1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और इज़रायल की निर्णायक भूमिका
1971 का युद्ध भारत के लिए केवल पाकिस्तान के विरुद्ध एक सैन्य संघर्ष नहीं था,
बल्कि यह युद्ध एक नए राष्ट्र—बांग्लादेश—के जन्म का कारण बना।
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने पश्चिम पाकिस्तान की सेना द्वारा पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में किए गए नरसंहार और अत्याचारों के विरुद्ध एक निर्णायक कदम उठाया।
इस युद्ध में भारत को जहां एक ओर सोवियत संघ का कूटनीतिक समर्थन प्राप्त था, वहीं अमेरिका और चीन खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़े थे।
अमेरिका ने सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था और चीन द्वारा उत्तर से सैन्य दबाव की आशंका बनी हुई थी।
ऐसे समय में इज़रायल ने भारत की ओर गुप्त समर्थन का हाथ बढ़ाया।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इज़रायल की प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर से सीधे संपर्क साधा।
यह संवाद पूरी तरह गोपनीय था और इसका उद्देश्य भारत को तत्कालीन परिस्थितियों में अत्यावश्यक हथियार, गोला-बारूद और रक्षा तकनीक की आपूर्ति कराना था।
इज़रायल ने भारत को न केवल हथियार दिए, बल्कि सीमा पर तैनात किए जाने वाले रॉकेट लॉन्चर,
आर्टिलरी शेल्स और अन्य गोला-बारूद की आपातकालीन खेप भी पहुंचाई।
इतना ही नहीं, भारत के मिराज और मिग विमानों के लिए इज़रायल ने रडार अवॉइडेंस सिस्टम्स और कुछ सीमित एयर डिफेंस सपोर्ट की भी पेशकश की,
जिससे पाकिस्तान के अमेरिका-निर्मित F-104 और F-86 जेट्स का मुकाबला करना संभव हो पाया।
UN में जब भारत के विरुद्ध प्रस्ताव लाए गए या बांग्लादेश की मुक्ति को अवैध ठहराने के प्रयास हुए,
तब इज़रायल ने कूटनीतिक रूप से भारत के पक्ष का समर्थन किया, हालांकि यह समर्थन औपचारिक रूप से सार्वजनिक नहीं था।
इस युद्ध के बाद भारत और इज़रायल के बीच खुफिया सहयोग और सैन्य संवाद की नींव और गहरी हो गई।
1999 का कारगिल युद्ध: जब इज़रायल ने वास्तविक युद्धभूमि में योगदान दिया
कारगिल युद्ध, भारत के इतिहास में एक ऐसा मोड़ है जब युद्ध की तकनीक, सूचना और सटीकता की महत्ता को समझा गया।
पाकिस्तान की सेना और आतंकवादियों ने LOC पार कर कारगिल की ऊँचाइयों पर कब्जा कर लिया था।
भारत को न केवल दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में लड़ाई लड़नी थी,
बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह सिद्ध करना था कि यह सीधा आक्रमण था न कि केवल आतंकवादियों की घुसपैठ।
इस युद्ध में इज़रायल का योगदान इतिहास में एक मिसाल बन चुका है।
भारत को युद्ध के प्रारंभिक चरणों में जिन सबसे बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा,
वे थीं दुश्मन के बंकरों की सटीक लोकेशन, ऊँचाइयों पर प्रभावी बमबारी और सटीक इन्फ्रारेड तकनीक की अनुपलब्धता।
अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देश हथियार आपूर्ति में अपनी शर्तें रख रहे थे।
ऐसे समय में भारत ने इज़रायल से संपर्क किया।
इज़रायल ने तत्काल भारत को ‘लेज़र गाइडेड बम’ और ‘Litening Targeting Pods’ की आपूर्ति की।
इनका उपयोग भारतीय वायुसेना ने अपने मिराज-2000 विमानों में किया
और इनसे कारगिल की ऊँचाइयों पर छिपे दुश्मनों के बंकरों को सटीकता से ध्वस्त किया गया।
यह युद्ध के निर्णायक मोड़ों में से एक था।
साथ ही, इज़रायल ने भारत को अपने उन्नत ‘Searcher’ और ‘Heron’ UAV (ड्रोन) तकनीक भी प्रदान की,
जिनका उपयोग दुश्मन की पोजीशन, मूवमेंट और रडार लोकेशन जानने के लिए किया गया।
यह भारत के लिए पहली बार था जब युद्ध में इतने बड़े स्तर पर UAVs का उपयोग हुआ।
इसके अलावा, इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने ISI के कम्युनिकेशन इंटरसेप्ट्स को R&AW के साथ साझा किया,
जिससे भारतीय सेना की रणनीतियों को तीव्र और प्रभावशाली रूप दिया जा सका।
यह सहयोग इतना तीव्र था कि इज़रायल से हथियारों की खेप 48 घंटों के भीतर युद्धक्षेत्र में पहुँचा दी गई।
भारत–इज़रायल संबंध: एक गुप्त मैत्री से रणनीतिक साझेदारी तक
1992 में औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित होने के बाद भारत और इज़रायल के संबंधों ने अभूतपूर्व गति पकड़ी।
लेकिन इन संबंधों की नींव उन्हीं युद्धों में पड़ी जिनमें भारत को विश्व मंच पर अक्सर अकेला खड़ा रहना पड़ा।
इज़रायल वह राष्ट्र था जिसने बिना शर्त, बिना प्रचार और बिना औपचारिक समझौतों के भारत की संप्रभुता, अखंडता और राष्ट्रीय सुरक्षा के समर्थन में अपने संसाधन खुले रखे।
आज भारत और इज़रायल आतंकवाद-विरोधी तकनीकों, साइबर सुरक्षा, कृषि तकनीक, जल संरक्षण, और रक्षा तकनीक के क्षेत्रों में घनिष्ठ सहयोग कर रहे हैं।
लेकिन यदि आज भारत इज़रायल के साथ इतनी तेजी से रक्षा सहयोग बढ़ा पा रहा है,
तो इसके पीछे उस पुराने, अघोषित और छिपे हुए विश्वास की भूमिका है जो 1965, 1971 और 1999 के संकटों में जन्मा था।
संकटों में मित्र की पहचान होती है
भारत ने सदियों से ‘विश्व बंधुत्व’ की बात की है,
लेकिन आधुनिक भू-राजनीति में व्यावहारिक मित्रता का मोल बहुत अधिक होता है।
इज़रायल ने बिना किसी शर्त, बिना किसी शोर-शराबे के, भारत के साथ संकट के क्षणों में जो सहयोग किया,
वह केवल सैन्य समर्थन नहीं बल्कि एक राष्ट्र की संप्रभुता के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
भारत को इज़रायल से यह सीख अवश्य लेनी चाहिए कि मित्र वही है जो विपत्ति में काम आए,
और ऐसे मित्रों को केवल रणनीतिक साझेदार नहीं बल्कि राष्ट्रहित के विश्वसनीय स्तंभ माना जाना चाहिए।
यह समय है कि भारत-इज़रायल संबंधों को केवल व्यापार या रक्षा के चश्मे से न देखा जाए,
बल्कि उस गहराई से भी मूल्यांकित किया जाए जो रक्त, विश्वास और निर्भीकता से भरी हुई है।
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