महात्मा गाँधी का पाकिस्तान और इज़रायल पर दोहरा मापदंड क्यों था? यह प्रश्न न केवल ऐतिहासिक विमर्श में, बल्कि आधुनिक कूटनीति और वैचारिक बहस में भी अत्यंत प्रासंगिक है।
महात्मा गाँधी, जो विश्वपटल पर अहिंसा और नैतिक राजनीति के प्रतीक माने जाते हैं, उनके विचारों में यदि कोई वैचारिक असंगति दिखाई दे, तो वह केवल एक व्यक्ति की भूल नहीं होती, बल्कि एक युग की मानसिकता को दर्शाती है।
पाकिस्तान को लेकर उनका दृष्टिकोण जहाँ एक ओर व्यावहारिक और सहिष्णु प्रतीत होता है,
वहीं इज़रायल के प्रति उनका रुख कठोर, निषेधात्मक और नैतिकता से ओतप्रोत था।
यह अंतर क्यों था? यही इस लेख का केंद्रबिंदु है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: दो राष्ट्र, दो सभ्यतागत अनुभव
20वीं सदी के मध्य दो ऐसे राष्ट्र अस्तित्व में आए जिन्होंने धार्मिक पहचान के आधार पर अपने वजूद की माँग की .
जिसमें से एक इस्लामी राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान और दूसरा यहूदी राष्ट्र के रूप में इज़रायल।
दोनों ही समुदाय—मुस्लिम और यहूदी, ने अपने-अपने ऐतिहासिक उत्पीड़न, असुरक्षा और पहचान की रक्षा के नाम पर अलग राष्ट्र की माँग की थी।
किंतु महात्मा गाँधी ने इन दोनों मांगों को एक समान नहीं देखा।
गाँधी का वैचारिक आधार : धर्म, राष्ट्र और नैतिकता
महात्मा गाँधी धार्मिक थे, परंतु धर्म को राजनीति का आधार नहीं मानते थे।
वे धर्म को आत्मिक शुद्धि का साधन मानते थे, न कि राष्ट्र निर्माण की आधारशिला। उन्होंने कहा था:
“धर्म निजी आस्था का विषय है, उसे राज्य का आधार नहीं बनाया जा सकता।”
(स्रोत: Collected Works of Mahatma Gandhi, Vol. 74, pp. 239–242)
इस तर्क से देखें तो वे न पाकिस्तान के पक्षधर हो सकते थे और न इज़रायल के,
किंतु व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ।
पाकिस्तान पर गाँधी का रुख : यथार्थ और स्वीकार्यता
गाँधी ने प्रारंभ में पाकिस्तान के निर्माण का स्पष्ट विरोध किया था।
वे विभाजन को भारत की एकता के विरुद्ध मानते थे, परंतु जब विभाजन अपरिहार्य हो गया,
तब उन्होंने इसे शांतिपूर्वक स्वीकार करने की अपील की।
उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की सहायता देने के लिए अनशन तक किया।
(स्रोत: Gandhi’s Last Fast – January 1948)
यह कार्य उनके नैतिक आग्रह का परिचायक तो था, लेकिन आलोचकों ने इसे मुस्लिम तुष्टिकरण और वास्तविकता से पलायन करार दिया।
महात्मा गाँधी ने कभी पाकिस्तान की धार्मिक अवधारणा को नैतिक आधार नहीं दिया, परंतु उन्होंने उसे शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की दृष्टि से स्वीकारा।
इज़रायल पर महात्मा गाँधी का दृष्टिकोण: यहूदी राष्ट्र के विरोध में नैतिक आग्रह
महात्मा गाँधी ने 1938 में यह स्पष्ट किया कि वह इज़रायल के विचार के विरोधी हैं। उन्होंने कहा:
“फिलिस्तीन अरबों का है, जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का है। यहूदियों का वहाँ दावा अनुचित है।”
(स्रोत: Harijan, 26 November 1938)
उन्होंने यहूदियों की पीड़ा को स्वीकार किया, परंतु फिलिस्तीन में यहूदी राज्य की स्थापना को अन्यायपूर्ण बताया।
उनके अनुसार यहूदियों को अन्य राष्ट्रों में नागरिक अधिकार मिलने चाहिए, न कि एक नया राष्ट्र।
गाँधी की यह राय द्वितीय विश्वयुद्ध और होलोकॉस्ट से पूर्व बनी थी, जब यहूदियों पर अत्याचार अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुँचा था।
किंतु 1948 में जब इज़रायल अस्तित्व में आया, तब भी भारत ने उसे मान्यता नहीं दी।
यह गाँधी की नैतिक विरासत का ही प्रभाव था।
महात्मा गाँधी का दोहरा मापदंड क्या था?
पाकिस्तान को लेकर महात्मा गाँधी ने आरंभ में विरोध किया, किंतु विभाजन को अपरिहार्य मानकर शांतिपूर्वक स्वीकार किया और आर्थिक सहायता भी दिलवाई। वहीं इज़रायल के विषय में उन्होंने यहूदी उत्पीड़न को समझते हुए भी, उनके लिए पृथक राष्ट्र की अवधारणा को नैतिकता के विरुद्ध बताया। पाकिस्तान के लिए गाँधी व्यवहारिक हुए, जबकि इज़रायल पर आदर्शवादी बने रहे। यही विरोधाभास आलोचना का कारण बना।
भारत की विदेश नीति पर गाँधी का प्रभाव
1947 में संयुक्त राष्ट्र में जब फिलिस्तीन के विभाजन का प्रस्ताव आया, तब भारत ने इसके विरुद्ध मतदान किया।
भारत ने इज़रायल को 1992 तक मान्यता नहीं दी, जबकि वह स्वतंत्रता के तुरंत बाद अस्तित्व में आ चुका था।
इसके पीछे महात्मा गाँधी का नैतिक प्रभाव था।
(स्रोत: India-Israel Relations, Ministry of External Affairs)
आलोचकों की दृष्टि : गांधी का पक्षपात या वैचारिक आदर्शवाद?
कई इतिहासकार और आलोचक मानते हैं कि महात्मा गाँधी ने मुस्लिमों के लिए राजनीतिक सहानुभूति अधिक दिखाई, जबकि यहूदियों की पीड़ा को केवल नैतिक स्तर पर स्वीकार किया।
उनकी दलील थी कि मुसलमान भारत के साझी इतिहास का हिस्सा हैं, जबकि यहूदी फिलिस्तीन पर दावा कर रहे थे, जो ‘दूसरों की भूमि’ थी।
यह सोच गाँधी के आत्मिक नैतिक आदर्शवाद से प्रेरित थी, परंतु उसमें व्यवहारिकता की कमी थी।
समकालीन संदर्भ: क्या आज गांधी का यही दृष्टिकोण स्वीकार्य होता?
आज जब इज़रायल एक समृद्ध, सशक्त राष्ट्र बन चुका है और पाकिस्तान अपने ही अंतर्विरोधों में उलझा है, तब गाँधी के रुख की पुनः समीक्षा होना स्वाभाविक है।
- क्या वे आज भी इज़रायल का विरोध करते?
- क्या वे पाकिस्तान के अस्तित्व को इतनी सहजता से स्वीकार करते?
समकालीन परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न और अधिक गूंजता है क्योंकि भारत आज इज़रायल का रणनीतिक सहयोगी है और पाकिस्तान से तनाव चरम पर।
नैतिकता, व्यवहारिकता और ऐतिहासिक दबावों का द्वंद्व
महात्मा गाँधी का पाकिस्तान और इज़रायल पर दृष्टिकोण उनके समय, संदर्भ और सीमाओं से जुड़ा था।
यह कहना आसान है कि उनका रुख दोहरा था, परंतु यह दोहरापन उस युग की परिस्थितियों, सांप्रदायिक तनाव और तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उपज भी था।
फिर भी, यह प्रश्न आज भी खड़ा है कि जब उन्होंने एक धर्म आधारित मुस्लिम राष्ट्र को व्यवहारिक मान्यता दी, तो यहूदी राष्ट्र को पूर्णत: अस्वीकार क्यों किया?
क्या यह केवल नैतिक आग्रह था, या भारतीय राजनीति का एक पक्षपातपूर्ण झुकाव?
इसका उत्तर सरल नहीं, परंतु यह विवेचना आवश्यक है.
क्योंकि जब भी हम “महात्मा गाँधी को समझने” का दावा करते हैं, तब हमें उनके सिद्धांतों के साथ-साथ उनकी चुप्पियों, विरोधाभासों और मानवीय सीमाओं को भी देखना चाहिए।
हमें आने वाली पीढ़ियों को महात्मा गाँधी के उन तमाम विवादास्पद और दोहरे मापदन्डों से भी अवगत कराना चाहिए जिनको कांग्रेस और वामपंथियों ने इतिहास के पन्नों में कहीं छुपा दिया है.
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