भारत में सेक्स पर संकीर्ण मानसिकता क्यों है?
सेक्स, जीवन की मूल जैविक प्रक्रिया है—सिर्फ प्रजनन नहीं, बल्कि प्रेम, ऊर्जा और आत्म-साक्षात्कार का माध्यम है ।
फिर भी भारत जैसे देश में, जहाँ कामसूत्र रचा गया, अजन्ता-एलोरा की दीवारों पर कामकला चित्रित है,
वहीं आज सेक्स शब्द बोलना भी अश्लील समझा जाता है। यह विरोधाभास क्यों है?
क्या यह भारत की मूल संस्कृति है या उपनिवेशवाद की विरासत?
इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना आवश्यक है क्योंकि जब तक हम सेक्स को लेकर संकोच, चुप्पी और दोहरापन नहीं तोड़ते,
तब तक न यौन अपराध रुकेंगे, न संबंधों में पारदर्शिता आएगी, न मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होगा।
प्रेम केवल शारीरिक आकर्षण है या आत्मिक अनुभूति?
1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: खुलापन से पाखंड तक
प्राचीन भारत में सेक्स का स्थान
प्राचीन भारतीय परंपरा में सेक्स को केवल भौतिक क्रिया नहीं माना गया।
यह काम, धर्म, अर्थ और मोक्ष—चार पुरुषार्थों में से एक था।
कामसूत्र जैसे ग्रंथ केवल कामवासना की पूर्ति नहीं, बल्कि कला, संगीत, सौंदर्यबोध, संतुलित जीवन और मानसिक संतुलन की बात करते हैं।
तंत्र में सेक्स को साधना का हिस्सा माना गया।
औपनिवेशिक प्रभाव और नैतिक संकोच
ब्रिटिश राज ने भारत में विक्टोरियन नैतिकता थोप दी.
जहाँ सेक्स को ‘गंदा’, ‘निजी’ और ‘अनैतिक’ माना जाता था।
शिक्षा प्रणाली, कानून, सामाजिक संस्थाओं ने इस सोच को जड़ से अपनाया और एक नई मानसिक गुलामी की शुरुआत हुई।
2. सामाजिक संरचना और पितृसत्तात्मकता
पितृसत्ता और यौन नियंत्रण
भारतीय समाज पुरुष प्रधान है।
इसमें सेक्स को पुरुषों की सत्ता बनाए रखने का एक उपकरण बना दिया गया।
स्त्री की यौन अभिव्यक्ति पर अंकुश और पुरुष की स्वतंत्रता ने एक असंतुलन पैदा किया
जिसमें सेक्स एक अधिकार नहीं, बल्कि नियंत्रण बन गया।
‘इज़्ज़त’ का मिथक
सेक्स को ‘इज़्ज़त’, ‘मर्यादा’, ‘परंपरा’ और ‘नारी के चरित्र’ से जोड़ दिया गया,
जिससे समाज में संवाद के स्थान पर संकोच, शर्म और हिंसा को जन्म मिला।
बलात्कार पीड़िता को दोषी ठहराना इसी मानसिकता का प्रमाण है।
सम्भोग एक साधन है साध्य नहीं है
3. शिक्षा प्रणाली की विफलता
यौन शिक्षा का अभाव
आज भी भारत के अधिकांश विद्यालयों और पाठ्यक्रमों में वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सेक्स की कोई चर्चा नहीं होती।
बच्चों और किशोरों में यौन जिज्ञासा को कुचलने के बजाय, उस पर संवाद करने की ज़रूरत है।
लेकिन अधिकांश शिक्षक, अभिभावक और नीति-निर्माता खुद इस विषय पर शर्म महसूस करते हैं।
नतीजा: पोर्न, ग़लत जानकारी और अपराध
जब बच्चों को स्वस्थ जानकारी नहीं दी जाती,
तो वे इंटरनेट, सोशल मीडिया, पोर्नोग्राफी आदि से अधूरी या विकृत जानकारी ग्रहण करते हैं।
यह प्रवृत्तियाँ न केवल यौनकुंठा को जन्म देती हैं, बल्कि अपराध और अवसाद को भी बढ़ावा देती हैं।
4. मीडिया, फिल्म और ‘सेक्सुअल हाइपररियलिटी’
सेक्स का बाज़ारीकरण
बॉलीवुड और वेबसीरीज़ में सेक्स को या तो मनोरंजन का उपकरण बना दिया गया है या फिर सनसनी का।
इससे युवावर्ग सेक्स को केवल वासनात्मक, प्रदर्शनात्मक और उपभोग की दृष्टि से देखने लगता है।
अश्लीलता बनाम अभिव्यक्ति
जहाँ एक ओर कुछ जागरूक फिल्मकार सेक्स के जटिल भावनात्मक पक्ष को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं,
वहीं अधिकांश सामग्री सेक्स को केवल “शरीर की भूख” या “मर्दानगी” के प्रदर्शन के रूप में दिखाती है।
इससे समाज का सामूहिक यौन-बोध सतही बनता जा रहा है।
5. धार्मिकता बनाम आध्यात्मिक दृष्टि
काम और धर्म के बीच संतुलन
हिंदू धर्म में ‘काम’ को पुरुषार्थ माना गया है।
तंत्र में सेक्स को ऊर्जा रूपांतरण और आत्मिक एकता का माध्यम माना गया है।
लेकिन पाखंडी धार्मिक प्रवृत्तियों ने सेक्स को पाप और विकृति बताकर समाज को दमन और छल की ओर ढकेला।
इस्लामिक दृष्टिकोण
इस्लाम में विवाहेतर यौन संबंध वर्जित हैं,
लेकिन विवाह के भीतर सेक्स को आनंद और जिम्मेदारी के साथ देखने का दृष्टिकोण है।
कुरआन में सेक्स को पवित्र माना गया है।
लेकिन यहां भी कट्टरपंथी सोच के चलते स्त्रियों की यौन स्वतंत्रता को नियंत्रित किया गया।
बौद्ध और जैन परंपरा
इन दोनों परंपराओं ने ब्रह्मचर्य को आदर्श माना,
लेकिन जीवन के लिए आवश्यक संबंधों और कामनाओं को पूरी तरह नकारा नहीं।
सामान्य गृहस्थ के लिए संतुलन की बात कही गई है।
6. मनोवैज्ञानिक प्रभाव और सामाजिक परिणाम
सेक्स को दबाने से क्या होता है?
- कुंठा और ग़लत यौन व्यवहार
- अपराध जैसे बलात्कार, छेड़छाड़, यौन शोषण
- संबंधों में असंतोष और विखंडन
- मानसिक विकृति, गिल्ट, और आत्मग्लानि
संवाद की ज़रूरत
जब सेक्स पर संवाद नहीं होता, तो संबंधों में अपारदर्शिता और भ्रम आते हैं।
यह केवल विवाह में नहीं, बल्कि युवाप्रेम, सहमति, गर्भधारण और सेक्सुअल काउंसलिंग जैसे विषयों में भी गहरी जड़ें जमा चुका है।
7. समाधान की दिशा में कुछ ठोस सुझाव
- शिक्षा प्रणाली में वैज्ञानिक यौन शिक्षा को अनिवार्य बनाया जाए।
- अभिभावकों और शिक्षकों को यौन संवाद के लिए प्रशिक्षित किया जाए।
- मीडिया को सामाजिक ज़िम्मेदारी के साथ यौन विषयों को प्रस्तुत करने की नीति अपनानी चाहिए।
- धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं की पुनर्व्याख्या की जाए, जिसमें सेक्स को जीवन का पवित्र पहलू माना जाए।
- सरकार और संस्थाएं यौन अपराधों के पीछे छिपी सामाजिक जड़ों को पहचानें और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें।
From Lust to Love : The Inner Journey from Desire to Devotion
काम को विकृति नहीं बल्कि …
भारत में सेक्स को लेकर संकीर्ण मानसिकता संस्कृति नहीं,
बल्कि अज्ञानता, पाखंड और उपनिवेशवादी मानसिकता की उपज है।
जब तक हम इस विषय पर स्वस्थ, ईमानदार और गरिमामयी संवाद नहीं करेंगे,
तब तक समाज यौनकुंठा, अपराध और संबंधों के संकट में उलझा रहेगा।
समय आ गया है कि हम काम को विकृति नहीं, साधना, ऊर्जा और प्रेम के रूप में पुनः समझें।
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