इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि रूस-चीन-ईरान गठबंधन भारत के लिए ख़तरे की घंटी क्यों है ?
विश्व राजनीति एक बार फिर ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही है। जहाँ अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्र एक ओर हैं, वहीं रूस, चीन और ईरान का नया त्रिकोणीय गठबंधन उभरकर सामने आ रहा है। यह गठजोड़ केवल एक कूटनीतिक समन्वय नहीं, बल्कि एक वैचारिक, सामरिक और वैश्विक सत्ता संतुलन को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश है।
भारत, जो स्वयं को एक स्वतंत्र, बहुध्रुवीय शक्ति के रूप में स्थापित करने में जुटा है, के लिए यह गठजोड़ निकट भविष्य में कई ख़तरों का कारण बन सकता है।
रूस-चीन-ईरान: साझा दुश्मन, साझा हित
- तीनों देश पश्चिमी वर्चस्व, विशेषकर अमेरिका और नाटो के प्रभाव का विरोध करते हैं।
- इनकी रणनीतिक नीतियाँ मुख्यतः अमेरिका को घेरने, डॉलर की निर्भरता कम करने और वैश्विक संस्थानों में पश्चिमी एकाधिकार को तोड़ने पर केंद्रित हैं।
- रूस और चीन के लिए ईरान एक भू-राजनीतिक और ऊर्जा-सामरिक साझेदार है।
ईरान की बदलती प्राथमिकताएँ और भारत की हानि
चाबहार बंदरगाह पर मंडराता ख़तरा:
- भारत ने अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँच के लिए ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारी निवेश किया है ।
- लेकिन अब ईरान, चीन के साथ बहुस्तरीय आर्थिक समझौतों में प्रवेश कर चुका है।
- चाबहार में चीनी निवेश या सैन्य उपस्थिति भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता पर सीधा आघात करेगी।
INSTC (International North-South Transport Corridor) में चीनी हस्तक्षेप:
- भारत की महत्त्वाकांक्षी योजना थी कि वह ईरान, अज़रबैजान और रूस होते हुए यूरोप तक एक वैकल्पिक व्यापार मार्ग बनाए।
- अब चीन इस मार्ग में रणनीतिक रूप से प्रवेश कर रहा है, जिससे भारत की “Connectivity Diplomacy” कमज़ोर हो सकती है।
मध्य एशिया में भारत की नीति संकट में
- भारत वर्षों से मध्य एशियाई देशों (Kazakhstan, Uzbekistan, Turkmenistan आदि) के साथ रणनीतिक और सांस्कृतिक संबंध बना रहा है।
- लेकिन चीन ने Belt and Road Initiative (BRI) के तहत अरबों डॉलर निवेश कर इन देशों को अपने प्रभाव में ले लिया है।
- रूस, जो पहले भारत का रणनीतिक समर्थक था, अब चीन और ईरान के साथ इन क्षेत्रों में संयुक्त रणनीति बनाने लगा है।
अफ़गानिस्तान नीति का पतन:
- तालिबान शासन के बाद भारत की अफ़गान नीति कमज़ोर हुई है।
- वहीं ईरान, रूस और चीन तालिबान के साथ सतही स्तर पर संबंध बना चुके हैं।
- इससे भारत की “Soft Power” और विकास परियोजनाओं पर आघात हुआ है।
शिया-सुन्नी राजनीति में भारत की तटस्थता संकटग्रस्त
- भारत ने सदैव इस्लामिक दुनिया में संतुलित दृष्टिकोण बनाए रखा है, विशेषकर सऊदी अरब और ईरान के बीच।
- अब जबकि ईरान को रूस और चीन का समर्थन प्राप्त है,
- भारत पर दबाव बढ़ेगा कि वह अमेरिका-सऊदी गठबंधन या ईरान गुट में से किसी एक को चुने।
- इससे भारत की वेस्ट एशिया नीति (Look West Policy) संकट में पड़ सकती है।
भारत की समुद्री सुरक्षा को ख़तरा
- चीन पहले ही हिंद महासागर में “String of Pearls” रणनीति के तहत भारत को घेर रहा है।
- यदि ईरान ने चीन को अपनी नौसैनिक सुविधाएँ दे दीं, तो भारतीय नौसेना की रणनीतिक बढ़त को भारी नुक़सान होगा।
- चीन-पाकिस्तान-ईरान त्रिकोण भारत के पश्चिमी तट को अस्थिर कर सकता है।
घरेलू स्थायित्व और वैचारिक ख़तरे
- भारत में मुस्लिम आबादी के एक हिस्से में ईरानी शिया विचारधारा का प्रभाव है।
- यदि यह वैचारिक प्रभाव राजनीतिक रूप से उभरता है, तो भारत की सामाजिक एकता पर असर पड़ सकता है।
- चीन और रूस के साथ ईरान की वैचारिक संधि भारत के अंदरूनी मामलों में अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप के द्वार खोल सकती है।
भारत की बहुध्रुवीय विदेश नीति पर दबाव
- भारत G20, BRICS, SCO आदि मंचों पर संतुलन बनाकर चलता है।
- लेकिन यदि रूस, चीन और ईरान एक मज़बूत गुट बनाते हैं, तो भारत की “Strategic Autonomy” कमज़ोर हो सकती है।
- UN, UNSC, और वैश्विक मंचों पर भारत का कूटनीतिक लचीलापन कमज़ोर होगा।
क्या यह त्रिकोण भारत की अखंडता को चुनौती देगा?
हाँ — यदि भारत ने सशक्त रणनीतिक उपाय नहीं किए तो यह त्रिकोणीय गठज़ोग उसकी सम्प्रभुता, कूटनीतिक स्वतंत्रता और भू-राजनीतिक पहुँच पर गंभीर असर डाल सकता है।
- भारत को:
- चाबहार और अफ़गान नीति को पुनर्जीवित करना होगा।
- मध्य एशिया में सांस्कृतिक, आर्थिक और सामरिक मौजूदगी बढ़ानी होगी।
- रूस से रिश्तों में संतुलन रखते हुए चीन और ईरान के विरुद्ध स्पष्ट रणनीतिक रेखाएँ खींचनी होंगी।
- हिंद महासागर क्षेत्र में नौसैनिक और सामरिक ताकत को नए स्तर पर ले जाना होगा।
अंतिम पंक्ति:
रूस, चीन और ईरान का गठबंधन सिर्फ़ भारत के लिए कूटनीतिक चुनौती नहीं है, यह उसकी भौगोलिक अखंडता और वैचारिक स्वाधीनता पर सीधा प्रश्नचिह्न है। समय रहते भारत को एक नई “निःशंक और निर्भीक विदेश नीति” का प्रारंभ करना ही होगा।
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