सम्भोग एक साधन है साध्य नहीं है : भारत जैसे देश में जहां काम को धर्म, अर्थ और मोक्ष के समकक्ष पुरुषार्थों में गिना गया है.
वहीं संभोग को लेकर द्वैत सोच आज भी गहराई से व्याप्त है।
एक ओर यह वासना के रूप में कलंकित होता है,
वहीं दूसरी ओर तांत्रिक साधना और कामसूत्र जैसे ग्रंथों में इसे आध्यात्मिक उन्नयन का माध्यम भी माना गया है।
क्या संभोग केवल एक शारीरिक क्रिया है?
क्या वह केवल वंशवृद्धि और इंद्रियसुख तक सीमित है?
या क्या वह एक ऊर्जा है — जो साध्य नहीं, साधन है आत्मबोध की यात्रा में?इस लेख का एकमात्र उद्देश्य है — संभोग को न वासना से कलंकित करना, न ही केवल आध्यात्मिकता से शुद्ध घोषित करना। बल्कि यह गहराई से समझना कि संभोग एक साधन है — कला, साधना और विकृति के मध्य।
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संभोग: वासना या प्रेम?
अक्सर संभोग को वासना (lust) और प्रेम (love) के बीच की रेखा पर देखा जाता है, जबकि दोनों का लक्ष्य और स्वरूप भिन्न होता है।
- वासना – उपभोग की इच्छा से प्रेरित, जिसमें दूसरा व्यक्ति केवल सुख के साधन के रूप में होता है।
- प्रेम में संभोग – आत्मीयता, समर्पण और आत्म-बिलयन का माध्यम बनता है, जिसमें देह माध्यम है, मुख्य तत्व है भावनात्मक एकत्व।
संभोग जब प्रेम के साथ होता है, तब वह विलीनता का अनुभव देता है। यही वह अवस्था है जहां तांत्रिक साधना जन्म लेती है – संभोग को ही ध्यान का माध्यम बना देना।
तांत्रिक परंपरा में संभोग: ऊर्जा का जागरण
तंत्र साधना में संभोग को “महायोग” का रूप माना गया है। विशेषकर कुलाचार मार्ग में संभोग कोई विकार नहीं, बल्कि ऊर्जा का परिवर्तन और उत्क्रमण है।
- तंत्र में शिव और शक्ति के संयोग को ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा का स्रोत माना गया है।
- यहां संभोग का उद्देश्य “स्खलन” नहीं, ऊर्ध्वगमन है — जिसे बिंदु स्थापन कहते हैं।
महत्वपूर्ण: संभोग में यदि चेतना केंद्रित हो जाए — देह से मन, मन से प्राण, और प्राण से आत्मा तक — तब वही वासना साधना बन जाती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण: वासना या आवश्यकता?
🔸 फ्रायड (Sigmund Freud):
संभोग या यौन इच्छा को उन्होंने मूल प्रेरणा (libido) कहा, जिससे मनुष्य के अधिकांश निर्णय और व्यवहार प्रभावित होते हैं।
👉 लेकिन उनकी आलोचना यह रही कि उन्होंने इसे आत्मिक या रचनात्मक नहीं माना।
🔸 कार्ल जुंग (Carl Jung):
उन्होंने कहा कि यौन ऊर्जा केवल कामवासना नहीं, बल्कि एक रचनात्मक चेतना है, जिसे कला, प्रेम, संगीत और साधना में रूपांतरित किया जा सकता है।
🔸 अब्राहम मास्लो:
उन्होंने ‘self-actualization’ को मानव विकास की अंतिम अवस्था माना, जहां व्यक्ति यौन संबंधों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक प्रेम तक पहुँच सकता है।
जब संभोग विकृति बन जाए
आज का समाज, विशेषकर डिजिटल युग में, संभोग की विकृति से ग्रस्त है:
- पोर्नोग्राफी का व्यसन
- रिश्तों में उपभोगवादी दृष्टिकोण
- बलात्कार, मानसिक शोषण और बच्चों पर हिंसा
- ‘OnlyFans’, ‘Instagram Erotic Influencing’ जैसी संस्कृति
👉 यह सब दर्शाता है कि जब संभोग साधन नहीं, बल्कि साध्य बन जाता है — तब वह मनुष्य को पशुता की ओर धकेल देता है।
ब्रह्मचर्य: दमन नहीं, दिशा
ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल सेक्स से दूरी नहीं है। इसका शाब्दिक अर्थ है — ब्रह्म में चर्या यानी चेतना का आत्मबोध की ओर गमन।
- शंकराचार्य: ब्रह्मचर्य से ही बुद्धि की शुद्धि संभव है।
- बुद्ध: वासनाओं को त्याग कर ही ध्यान में स्थिरता आती है।
- जैन दर्शन: ब्रह्मचर्य का पालन संसार से वैराग्य का अभ्यास है।
👉 अत: ब्रह्मचर्य संभोग का विरोध नहीं, बल्कि उसे ऊर्जा में बदलने की प्रक्रिया है।
संभोग और संबंध: आत्मा की यात्रा या देह का व्यापार?
जब संभोग केवल शरीर तक सीमित हो जाए — वह जल्द ही भावनात्मक दूरी और असंतोष को जन्म देता है।
लेकिन जब यह:
- सम्मान के साथ हो,
- भावनात्मक एकत्व के साथ हो,
- और निःस्वार्थ प्रेम से हो,
तब यह दो आत्माओं को जोड़ता है — देह नहीं, चेतना का मिलन होता है।
संभोग और सामाजिक यथार्थ: भारतीय दृष्टि बनाम पश्चिमी भोगवाद
विषय | भारतीय दृष्टिकोण | पश्चिमी दृष्टिकोण |
---|---|---|
उद्देश्य | संयम और ब्रह्मचर्य | उपभोग और स्वतंत्रता |
संस्कार | विवाहोपरांत शुद्धता | पूर्वविवाहिक स्वच्छंदता |
साहित्य | कामसूत्र, अनंगरंग | पोर्न, एडल्ट कल्चर |
👉 भारत में काम को निषिद्ध नहीं, बल्कि नियंत्रित, मर्यादित और चेतना संपन्न माना गया है।
संभोग – साधन, साध्य या संयोग?
संभोग न वर्ज्य है, न परम है।
वह न विकार है, न ही मोक्ष।
वह एक ऊर्जा है — जिसे यदि साध लिया जाए, तो वह ध्यान बन सकती है;
पर यदि वह हावी हो जाए, तो वह पतन बन जाती है।
“काम आत्मा का शत्रु नहीं है,
लेकिन उसका बिना विवेक प्रयोग – आत्मा का अपमान है।”
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