श्रीमद्भगवद्गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित किया जाना चाहिए : विरोध में कौन ?

भारतीय मंच पर भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करते वक्त विरोध करते दर्शक

क्या भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र में श्रीमद्भगवद्गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित किया जाना चाहिए?

गीता का स्थान भारत में न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के प्रतीक के रूप में भी है।

यही कारण है कि समय-समय पर इसे भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग उठती रही है।

इस लेख में हम गहराई से समझने का प्रयास करेंगे:

  • किन राज्यों ने भगवद्गीता को शिक्षा और संस्कृति में बढ़ावा दिया,
  • केंद्र सरकार की योजनाएँ और प्रतिक्रियाएँ क्या रही हैं,
  • और कांग्रेस जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टी की आपत्तियाँ किन बिंदुओं पर आधारित हैं।

भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की पहल

सितंबर 2022 में महाराष्ट्र से भाजपा सांसद गोपाल शेट्टी ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि श्रीमद्भगवद्गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाए।

इसके बाद गृह मंत्रालय ने शिक्षा और संस्कृति मंत्रालयों से इस मुद्दे पर राय मांगी थी।

यह कोई पहली बार नहीं था जब इस विषय पर राजनीतिक हलकों में चर्चा हुई हो।

2014 में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक सार्वजनिक मंच पर यह मांग रखी थी कि श्रीमद्भगवद्गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाए।

उनका कहना था कि गीता न केवल धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह जीवन का दर्शन भी प्रस्तुत करती है।

लेकिन इन बयानों के बाद संसद या सरकार की ओर से कोई औपचारिक कदम नहीं उठाया गया।

इसका प्रमुख कारण संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना है, जिसे लेकर कुछ वर्गों द्वारा आपत्ति जताई जाती रही है।


किन राज्यों ने गीता को बढ़ावा दिया?

देश के कई राज्यों में गीता को शिक्षा, संस्कृति और नैतिक मूल्यों के वाहक के रूप में स्थान मिला है।

नीचे राज्यवार विवरण प्रस्तुत है:

इनमें से गुजरात, हरियाणा और मध्य प्रदेश ने सबसे अधिक ठोस पहल की है जहाँ गीता को न केवल शिक्षा का हिस्सा बनाया गया है बल्कि उसे सांस्कृतिक उत्सवों और परीक्षा पैटर्न में भी समाहित किया गया है।


कांग्रेस की आपत्तियाँ: धर्मनिरपेक्षता या वोट बैंक?

कांग्रेस पार्टी ने भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने के प्रयासों का विरोध करते हुए इसे भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विपरीत बताया है। इसके मुख्य तर्क निम्नलिखित हैं:

1. संविधान की भावना का उल्लंघन

भारत का संविधान सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण की बात करता है। ऐसे में किसी एक विशेष धार्मिक ग्रंथ को राष्ट्रीय स्तर के ग्रन्थ का दर्जा देना संविधान की भावना के विरुद्ध माना जाएगा।

2. सांप्रदायिक विभाजन की संभावना

एक विशेष धार्मिक ग्रंथ को राष्ट्रीय दर्जा देने से अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो सकती है और इससे सामाजिक एकता प्रभावित हो सकती है।

3. राजनीतिक लाभ का प्रयास

कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा श्रीमद्भगवद्गीता जैसे धार्मिक प्रतीकों का उपयोग अपने राजनीतिक एजेंडे को मजबूत करने और हिंदू वोट बैंक को साधने के लिए करती है।


क्या गीता केवल धार्मिक ग्रंथ है?

यह तर्क अक्सर सामने आता है कि श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है। यह जीवन का दर्शन प्रस्तुत करती है, जिसमें कर्मयोग, आत्मसाक्षात्कार, त्याग, और अहंकार से मुक्ति जैसे सार्वभौमिक विषयों का उल्लेख है। प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और नेताओं ने गीता को प्रेरणा का स्रोत माना है।

महात्मा गांधी ने कहा था:

यह स्पष्ट है कि गीता का प्रभाव किसी विशेष धर्म या समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानवता का सार्वभौमिक मार्गदर्शन है।


यूनेस्को की मान्यता: वैश्विक गौरव

अप्रैल 2025 में, श्रीमद्भगवद्गीता को UNESCO द्वारा “Memory of the World Register” में शामिल किया गया। इसके साथ ही भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ भी इस सूची में शामिल हुआ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे भारतीय संस्कृति की एक ऐतिहासिक विजय बताया और कहा कि यह भारत की सांस्कृतिक विविधता और गहराई को वैश्विक मान्यता देने वाला क्षण है।

यह मान्यता स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि गीता केवल भारत तक सीमित नहीं, बल्कि एक वैश्विक दार्शनिक धरोहर बन चुकी है।


शिक्षा और संस्कृति में गीता की भूमिका

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय संस्कृति और मूल्य आधारित शिक्षा को बढ़ावा देने की बात कही गई है। इस नीति के तहत कुछ राज्यों ने गीता को पाठ्यक्रम में शामिल किया है। गीता के श्लोक छात्रों को नैतिकता, आत्म-संयम और धैर्य जैसे गुणों की शिक्षा देते हैं।

मनोवैज्ञानिक रूप से भी यह देखा गया है कि गीता का अध्ययन विद्यार्थियों में तनाव कम करता है और उन्हें निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने में सहायता करता है।


विरोध बनाम समर्थन: एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता

जो लोग गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने का विरोध करते हैं, उनका तर्क संविधान और धर्मनिरपेक्षता से प्रेरित है। वहीं समर्थन करने वालों का मानना है कि गीता का संदेश सभी धर्मों से ऊपर है और यह एक मानवतावादी ग्रंथ है।

इसलिए आवश्यक है कि:

  • इस विषय पर व्यापक सामाजिक विमर्श हो,
  • धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों की राय ली जाए,
  • और यह निर्णय तटस्थता व समावेशिता की भावना से लिया जाए।

हमारी राय

श्रीमद्भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए.

यह मांग केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, दार्शनिक और राजनीतिक विमर्श का विषय बन चुकी है।

गीता का स्थान भारतीय चेतना में अति विशिष्ट है, लेकिन इसका राष्ट्रीय दर्जा संविधानिक मर्यादाओं के भीतर ही संभव हो सकता है।

अगर ऐसा कोई कदम उठाया जाता है, तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यह समावेशी हो, किसी भी धार्मिक या सामाजिक समूह की भावना को आहत न करे, और भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को बनाए रखे।


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