एक तरफ पूरी दुनिया तृतीय विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी है,
जबकि दूसरी ओर भारत दुनिया का शायद इकलौता ऐसा देश है जो अभी भी अहिंसा की लाठी थामे, शांति के कबूतर उड़ा रहा है।
यह वही भारत है, जिसके पास दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और अनुशासित सेना है।
फिर भी यह देश दशकों से आतंकवाद का शिकार होता रहा है .
कभी कश्मीर में, कभी मुंबई में, कभी पुलवामा में, तो कभी सीमा पर।
और अब जबकि पूरी दुनिया आतंकवाद और विस्तारवाद के खिलाफ एक निर्णायक युद्ध की मुद्रा में खड़ी है,
भारत अभी भी शांति वार्ता, रणनीतिक संयम और ‘विश्व बंधुत्व’ जैसे पुराने आदर्शों का राग अलाप रहा है।
लेकिन क्या आज की वैश्विक परिस्थितियाँ इन आदर्शों के अनुकूल हैं?
या भारत को अब वह भाषा बोलनी चाहिए, जिसे दुनिया समझती है — शक्ति, प्रतिशोध और निर्णायक नेतृत्व की भाषा?
ईरान और इज़रायल युद्ध : भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए?
वैश्विक परिदृश्य: तृतीय विश्व युद्ध की संभावनाएँ
रूस-यूक्रेन युद्ध से उभरी दरारें
रूस और यूक्रेन के बीच 2022 से चल रहे युद्ध ने पूरी दुनिया को द्विध्रुवीय बना दिया है।
एक ओर नाटो और अमेरिका हैं, तो दूसरी ओर रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया।
यह टकराव अब सिर्फ यूरोप या यूरेशिया तक सीमित नहीं रहा,
बल्कि ऊर्जा, खाद्य सुरक्षा, साइबर युद्ध और वैश्विक बाजारों को प्रभावित कर रहा है।
चीन की विस्तारवादी नीति और ताइवान संकट
चीन की ‘वन चाइना पॉलिसी‘ और ताइवान पर उसकी दादागिरी ने अमेरिका के साथ टकराव की नींव रख दी है।
भारत भी चीन के इसी रवैये का शिकार है — डोकलाम, गलवान और अरुणाचल प्रदेश की घटनाएँ इसकी गवाह हैं।
इज़रायल-ईरान और गज़ा युद्ध
मध्य-पूर्व में चल रहे इज़रायल-गज़ा संघर्ष और ईरान की बढ़ती सक्रियता,
इस्लामिक कट्टरपंथ की वैश्विक चुनौती को रेखांकित करते हैं।
आंतरिक अस्थिरता, मज़हबी राजनीति, और कट्टरपंथी संगठनों के पुनर्जीवन के रूप में,
भारतवर्ष में भी इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है.
भारत की ऐतिहासिक नीति: संयम या कमज़ोरी?
भारत हमेशा से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ और ‘पंचशील सिद्धांतों’ का पक्षधर रहा है।
पर क्या यह आदर्शवाद अब यथार्थवाद की आंधी में बहता नहीं जा रहा?
नेहरू से मोदी तक: एक कूटनीतिक यात्रा
नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति, इंदिरा गांधी की निर्णायक बांग्लादेश मुक्ति कार्रवाई,
वाजपेयी की परमाणु शक्ति उद्घोषणा और मोदी की कूटनीतिक सक्रियता
ये सभी पड़ाव इस बात को दिखाते हैं कि भारत ने समय-समय पर अपने रुख़ में बदलाव किए हैं।
लेकिन अब भी वह निर्णायक सैन्य प्रतिक्रिया से बचता दिखता है।
भारत को इज़रायल से क्या सीखना चाहिए और क्यों?
आतंकवाद की पीड़ा: कब तक शहीदों की चिताएँ जलेंगी?
भारत दशकों से आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार रहा है।
- 1984 ख़Iलिस्तान उग्रवाद
- 1993 मुंबई ब्लास्ट
- 2001 संसद हमला
- 2008 मुंबई हमला
- 2016 उरी और 2019 पुलवामा
इन घटनाओं के बावजूद भारत बार-बार संयम दिखाता रहा है।
बालाकोट स्ट्राइक और सर्जिकल स्ट्राइक अपवाद हैं,
परंतु एक संगठित, सतत प्रतिरोध नीति का अभाव अब भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
इस्लामिक कट्टरपंथ एक वैश्विक संकट और मुस्लिम देशों की भूमिका
वैश्विक शक्ति संरचना और भारत की भूमिका
क्यों अब भारत को निर्णायक बनना होगा?
- सैन्य शक्ति: भारत के पास दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है, उन्नत राफेल फाइटर जेट, ब्रह्मोस मिसाइल, परमाणु हथियार और अंतरिक्ष तकनीक।
- आर्थिक शक्ति: भारत अब 3.7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, और G20 का प्रभावशाली सदस्य है।
- रणनीतिक भू-स्थिति: भारत हिंद महासागर में निर्णायक स्थिति में है, जो उसे पश्चिम से पूर्व तक सैन्य और वाणिज्यिक नियंत्रण देता है।
अब वक्त है — कबूतर नहीं, गरुड़ उड़ाने का
दुनिया अब शक्ति की भाषा समझती है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक और ईरान में यही दिखाया।
रूस यूक्रेन में, चीन ताइवान पर, इज़रायल गज़ा में,
सभी अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए निर्णायक रूप से खड़े हैं।
ऐसे में भारत अगर अब भी “Global Peace” और “Mutual Dialogue” की दुहाई देता रहेगा,
तो यह केवल कूटनीतिक असमर्थता नहीं, बल्कि अपने नागरिकों के साथ विश्वासघात होगा।
स्वतंत्र भारत की अब तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूलें – एक गहन विश्लेषण
नीति में बदलाव: क्या करे भारत ?
- 1. कूटनीतिक सख्ती: पाकिस्तान, चीन और तुर्की जैसे देशों के साथ व्यापार और सांस्कृतिक रिश्तों पर पुनर्विचार।
- 2. सैन्य प्रतिरोध: LOC उल्लंघन पर तुरंत जवाब, आतंकी हमलों पर स्पष्ट प्रतिशोध नीति।
- 3. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आक्रामकता : UN, G20, BRICS जैसे मंचों पर भारत को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण स्पष्टता से प्रस्तुत करना चाहिए।
- 4. आंतरिक सफाई: कट्टरपंथियों, माओवादी और अलगाववादी तत्वों पर कठोरता, और सुरक्षा एजेंसियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना।
- 5. नीतिगत स्पष्टता: भारत को अब यह तय करना होगा कि क्या वह अपने आदर्शों की कीमत पर अस्तित्व से समझौता करेगा?
अभी नहीं तो कभी नहीं
भारत को अब यह समझना होगा कि शांति तब तक ही मूल्यवान होती है जब तक दुश्मन भी उसे महत्व देता हो।
जब चारों ओर युद्ध की गूंज हो, जब शांति की अपील को कमज़ोरी समझा जाए, तब चुप रहना — आत्मसमर्पण है।
भारत को अब शांति के कबूतर नहीं, प्रतिशोध के गरुड़ उड़ाने होंगे।
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यह लेख केवल शैक्षिक, सामाजिक और संवैधानिक विमर्श के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें व्यक्त विचार किसी धर्म, समुदाय या परंपरा को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि भारत जैसे बहुधार्मिक समाज में उभरते पर्यावरणीय, नैतिक, और सार्वजनिक हितों से संबंधित प्रश्नों को तथ्यात्मक और संतुलित दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने हेतु हैं। लेखक धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करता है और यह स्पष्ट करता है कि लेख में उल्लिखित सभी पहलू कानूनी, सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से विश्लेषण हैं — न कि धार्मिक हस्तक्षेप का प्रयास। यदि किसी व्यक्ति, समूह या संस्था को इस लेख से असुविधा हो तो कृपया उसे एक सकारात्मक विमर्श के रूप में लें, न कि विद्वेष के रूप में।
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