मोदी जी अगर बातचीत से ही सब मसले सुलझते तो महाभारत क्यों होती ?

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अगर बातचीत से सब मसले सुलझते तो महाभारत क्यों होती?”

यह प्रश्न आज के राजनीतिक और वैश्विक संदर्भों में एक ज्वलंत विचार है।

यह न केवल एक ऐतिहासिक दृष्टांत की ओर इशारा करता है, बल्कि यह उस दर्शन की भी पड़ताल करता है,

जिसमें संवाद, शांति, और नैतिकता बनाम सत्ता, सैन्य शक्ति और रणनीतिक राष्ट्रवाद का टकराव निहित होता है।

इस प्रश्न की गहराई को समझने के लिए हमें दो महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों का अध्ययन करना होगा;

महात्मा गांधी, जो शांति, सत्य और संवाद के प्रतीक माने जाते हैं,

और नरेंद्र मोदी, जिनकी विदेश नीति में शक्ति संतुलन और कूटनीतिक संदेशों का प्रभाव है।

विशेषकर हाल ही में ईरान-इजराइल संघर्ष के संदर्भ में मोदी द्वारा दिये गए शांति सन्देशों की आलोचनात्मक विवेचना इस विमर्श का केंद्र बनती है।

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महात्मा गांधी: संवाद का दर्शन और नैतिक अहिंसा

महात्मा गांधी का सम्पूर्ण राजनीतिक दर्शन सत्य और अहिंसा के इर्द-गिर्द घूमता है।

उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक, हर संघर्ष में संवाद, आत्मसंयम और नैतिक शक्ति का प्रयोग किया।

गांधीजी के लिए शांति कोई कमजोरी नहीं थी, बल्कि आत्मबल की चरम अवस्था थी।

उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि किसी भी विरोधी को हिंसा से नहीं, बल्कि प्रेम और संवाद से बदला जा सकता है।

उनका यह दर्शन उन्हें विश्व राजनीति में एक नैतिक नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करता है।

लेकिन उनके इसी दृष्टिकोण को उनके समकालीन नेताओं ने अव्यवहारिक और असंभव माना.

ठीक वैसे ही जैसे आज मोदी सरकार की शांति नीति को लेकर कुछ लोग प्रश्न उठा रहे हैं।

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महाभारत और संवाद की सीमा

महाभारत, भारत की सबसे प्राचीन और गहन महाकाव्य गाथा,

हमें यह सिखाती है कि संवाद तब तक ही उपयोगी है जब तक दूसरे पक्ष में न्यूनतम नैतिकता और न्याय के लिए स्पेस मौजूद हो।

भगवान कृष्ण ने दुर्योधन से केवल पाँच गाँव मांगे, लेकिन दुर्योधन ने कहा — “सुई की नोंक बराबर भी ज़मीन नहीं दूँगा।”

यह संवाद की विफलता नहीं थी, बल्कि अधर्म के अहंकार की अभिव्यक्ति थी।

इस सन्दर्भ में यह प्रश्न फिर से उठता है —

क्या शांति और संवाद की नीति तब भी प्रभावी रहती है जब विरोधी पक्ष किसी भी नैतिक या अंतर्राष्ट्रीय नियम को मानने को तैयार न हो?

यही वह बिंदु है जहाँ गांधीवादी नीति और आज के भू-राजनीतिक यथार्थ में गहरा टकराव दिखाई देता है।

नरेंद्र मोदी और अंतरराष्ट्रीय शांति प्रवचन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को दो विपरीत दृष्टिकोणों में बांटा जा सकता है —

एक ओर कूटनीतिक संतुलन और शक्ति प्रदर्शन, दूसरी ओर विश्व मंच पर शांति की अपील।

मोदी ने बार-बार वैश्विक मंचों से शांति, सह-अस्तित्व और आतंकवाद के विरुद्ध एकजुटता की अपील की है।

हाल ही में ईरान और इजरायल के बीच बढ़ते युद्ध तनाव के बीच मोदी ने संयम और शांति का आग्रह किया।

उन्होंने कहा कि “यह समय युद्ध का नहीं, संवाद का है”

यह वही स्वर है जो महात्मा गांधी के नैतिक आदर्शों से मेल खाता है, लेकिन जिस सन्दर्भ में यह कहा गया, वह जटिल है।

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ईरान-इजरायल संघर्ष की प्रकृति

ईरान और इजरायल के बीच का टकराव केवल दो देशों की शत्रुता नहीं है,

बल्कि यह शिया-सुन्नी विवाद, इस्लामिक कट्टरपंथ, यहूदी राज्य की आत्मरक्षा, और अमेरिकी रणनीति की पेचीदगियों से जुड़ा हुआ है।

इजरायल पर हमास और हिजबुल्ला जैसे संगठनों के माध्यम से जब हमला होता है,

और ईरान उस युद्ध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका निभाता है, तो क्या केवल शांति का उपदेश देना पर्याप्त है?

इस प्रश्न में ही मोदी की नीति की विडंबना छिपी है।

एक ओर भारत आतंकवाद का पीड़ित देश है, जिसने पठानकोट, पुलवामा, और उरी जैसे हमलों को झेला है,

वहीं दूसरी ओर हम वैश्विक मंचों पर शांति की वकालत करते हैं,

तब आलोचक पूछते हैं कि क्या यह व्यावहारिक राजनीति है या सिर्फ नैतिक आवरण?

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गांधी और मोदी: समानता और विरोधाभास

गांधी और मोदी के बीच एक मौलिक अंतर यह है कि गांधी का संवाद नैतिक चेतना से उपजा था,

जबकि मोदी का शांति का आह्वान रणनीतिक चेतना से।

गांधी ने ब्रिटिश सत्ता के सामने निर्भीक होकर सत्याग्रह किया,

जबकि मोदी वैश्विक सत्ता संतुलन को ध्यान में रखते हुए किसी पक्ष विशेष के खिलाफ कठोर भाषा का प्रयोग नहीं करते।

मोदी के आलोचक यह तर्क देते हैं कि मोदी का शांति संदेश केवल एक कूटनीतिक मुद्रा है,

जिसका उद्देश्य भारत की तटस्थता बनाए रखना है।

जबकि समर्थक यह कहते हैं कि विश्व में भारत की भूमिका अब केवल एक क्षेत्रीय शक्ति की नहीं,

बल्कि एक संतुलनकारी महाशक्ति की है, और ऐसे में शांतिपूर्ण दृष्टिकोण आवश्यक है।

क्या शांति की नीति एक भ्रम है?

आधुनिक विश्व व्यवस्था में ‘शांति’ एक आदर्श शब्द है,

जिसे हर राष्ट्र अपने हितों के अनुसार परिभाषित करता है।

अमेरिका भी शांति की बात करता है लेकिन वह सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है।

चीन भी कूटनीतिक भाषा में ‘सह-अस्तित्व’ की बात करता है, लेकिन LAC पर अतिक्रमण करता है।

ऐसे में मोदी का शांति संदेश क्या सिर्फ एक कूटनीतिक औपचारिकता है?

या क्या भारत वास्तव में गांधीवादी तर्ज पर वैश्विक नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है? शायद सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है।

महाभारत का संदेश आज भी प्रासंगिक है —

मोदी का यह दायित्व है कि वे कब और कैसे ‘कृष्ण’ बनें — यह समझें।

भारत की वर्तमान भूमिका का मूल्यांकन

भारत आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहाँ उसे न केवल आर्थिक महाशक्ति के रूप में देखा जा रहा है,

बल्कि एक वैश्विक नैतिक नेतृत्वकर्ता की छवि भी उससे अपेक्षित है।

ऐसे में गांधीजी की शिक्षाओं और मोदीजी की सक्रिय विदेश नीति दोनों का सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है।

यदि भारत विश्वमंच पर न केवल शांति का आग्रह करता है

बल्कि आतंकवाद, विस्तारवाद और कट्टरपंथ के विरुद्ध निर्णायक रुख भी अपनाता है,

तो वह वास्तव में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ सिद्ध कर सकता है।

यह आवश्यक है कि भारत किसी एक छोर पर न झुके —

न अंधशांति की ओर, न ही आक्रामक राष्ट्रवाद की ओर।

आज का भारत यदि “महाभारत” से कुछ सीख सकता है,

तो वह यह कि ‘धर्मयुद्ध’ केवल अस्त्रों से नहीं,

बल्कि नैतिक दृढ़ता, विवेक और समय पर लिए गए निर्णयों से लड़ा जाता है।

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शांति का मूल्य, लेकिन अंधश्रद्धा नहीं

शांति और संवाद आवश्यक हैं —

लेकिन जब उनका प्रयोग सिर्फ दिखावे, विलंब या अंतरराष्ट्रीय संतुलन के लिए हो, तब वे निरर्थक हो सकते हैं।

महात्मा गांधी ने जो नैतिक शक्ति दी, वह आज भी प्रासंगिक है,

लेकिन उसे शक्ति और यथार्थ की कसौटी पर कसना होगा।

मोदी का यह प्रयास कि भारत ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को आगे बढ़ाए, सराहनीय है,

बशर्ते यह केवल शब्दों तक सीमित न रहे।

अंततः, यह निर्णय हमारे राष्ट्र को लेना है कि हम कब तक संवाद करते रहेंगे

और कब, यदि आवश्यक हो, निर्णायक भूमिका निभाएँगे।

महाभारत केवल एक युद्ध नहीं, एक चेतावनी भी थी कि संवाद की सीमा होती है,

और जब वह सीमा टूटे, तो साहसिक निर्णय लेना ही धर्म होता है।

इसलिए, यदि बातचीत से सब मसले सुलझते — तो महाभारत क्यों होती?

यह प्रश्न आज भी हमें सोचने पर विवश करता है — और शायद उत्तर भी देता है।

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