2025 के मध्य में अब ईरान और इज़रायल युद्ध शुरू हो चुका है, अब यह सिर्फ पश्चिम एशिया का मामला नहीं रहा।
भारत, जो इन दोनों देशों के साथ गहरे लेकिन भिन्न संबंध रखता है, एक रणनीतिक दोराहे पर खड़ा है।
आर्थिक हितों से लेकर आंतरिक सुरक्षा तक, यह संकट भारत के लिए चेतावनी की घंटी है।
यह लेख इस मुद्दे का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
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ईरान और इज़रायल के बीच तनाव का मूल कारण
- ईरान की विचारधारा: ईरान एक शिया इस्लामिक गणराज्य है, जो इस्लामी क्रांति के बाद से पश्चिम और इज़रायल के खिलाफ खड़ा रहा है। ईरान का रेवोल्यूशनरी गार्ड (IRGC) और उसके द्वारा पोषित इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन जैसे हिज़बुल्लाह, हमास, हूती, आदि सीधे इज़रायल के विरोध में हैं।
- इज़रायल की सुरक्षा नीति: यहूदी राज्य, जो खुद को ईरान के परमाणु खतरे और उसके गुरिल्ला युद्ध में पारंगत इस्लामिक आतंकी संगठनों से बचाने की नीति पर चल रहा है। ‘पूर्व-ख़तरे की रोकथाम’ के सिद्धांत के तहत इज़रायल ने पहले भी ईरान के सैन्य और परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले किए हैं।
भारत-ईरान संबंध
- ऊर्जा साझेदारी: भारत ने दशकों तक ईरान से सस्ता कच्चा तेल आयात किया है।
- चाबहार बंदरगाह: भारत का सामरिक निवेश जो अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँचने का मार्ग खोलता है।
- सांस्कृतिक और धार्मिक जुड़ाव: भारत में शिया समुदाय और कुछ धार्मिक संगठन ईरान से वैचारिक रूप से जुड़े हैं।
भारत-इज़रायल संबंध
- रक्षा सहयोग: इज़रायल भारत को राडार, ड्रोन, मिसाइल तकनीक और साइबर सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराता है।
- ख़ुफ़िया सहयोग: 26/11 हमलों के बाद से दोनों देशों के ख़ुफ़िया तंत्र गहराई से जुड़ गए हैं।
- कृषि और जल प्रबंधन: इज़रायल की तकनीक ने भारत के कृषि और जल नीति में नई दिशा दी है।
निष्कर्ष: आज इज़रायल भारत का सबसे मजबूत और व्यावहारिक साझेदार है।
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भारत पर संभावित दुष्प्रभाव
1. आर्थिक असर:
- तेल की कीमतों में उछाल से भारत का आयात बिल बढ़ेगा।
- रुपये पर दबाव और मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।
2. विदेशी निवेश में गिरावट:
- FII (Foreign Institutional Investors) जोख़िम देखकर भारतीय बाजारों से अपनी पूंजी निकाल सकते हैं।
3. प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा:
- मध्य पूर्व में रहने वाले भारतीयों की सुरक्षा को खतरा।
- बड़े पैमाने पर निकासी अभियान की संभावना।
4. रणनीतिक अस्थिरता:
- अफ़गानिस्तान, पकिस्तान और खाड़ी देशों में अस्थिरता भारत की सीमाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से दुष्प्रभाव डालेगी।
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भारत के लिए चेतावनी—आंतरिक कट्टरपंथ
भारत को सिर्फ बाहरी खतरों से नहीं, बल्कि आंतरिक कट्टरपंथी समर्थकों से भी सावधान रहने की ज़रूरत है,
ऑनलाइन कट्टरता: सोशल मीडिया पर कुछ कट्टरपंथी संगठन खुलकर ईरान और उसके आतंकी गुटों के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं।
- मदरसे और वैचारिक उपनिवेश: कुछ मुस्लिम शिक्षा संस्थानों में खुलेतौर पर इस्लामिक कट्टरपंथी विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- राजनीतिक मौन : छद्म-धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक संगठन और अर्बन नक्सली वर्ग इज़रायल को ‘दमनकारी’ और ईरान को ‘मुक्तिदाता’ की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह भारत की आंतरिक एकता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है.
यह क्यों ख़तरनाक है?
- इन ताकतों को यदि अनियंत्रित छोड़ना सबसे बड़ी भूल होगी.
- भविष्य में यही कट्टरपंथी ताकतें भारत के लिए “हिज़बुल्लाह” या “हूती” बन सकते हैं।
- छद्म-निरपेक्ष संगठन भी भारत की विदेश नीति और वास्तविक धर्मनिरपेक्ष ढांचे को कमज़ोर करते हैं।
भारत को क्या करना चाहिए?
1. संतुलित कूटनीति बनाए रखें:
- ईरान से ऊर्जा और चाबहार का रिश्ता अलग है। लेकिन इज़रायल के साथ रक्षा साझेदारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
2. आंतरिक सुरक्षा पर नज़र :
- ऐसे संस्थानों पर निगरानी जरूरी है जो ईरानी कट्टरपंथी विचारधारा का प्रचार कर रहे हों।
- NIA, IB और गृह मंत्रालय को विशेष प्रकोष्ठ बनाकर इनके फंडिंग स्रोत, वैचारिक संबंध और ऑनलाइन नेटवर्क पर नजर रखनी चाहिए।
3. रक्षा रणनीति:
- इज़रायल के साथ संयुक्त रक्षा अभ्यास और साइबर सुरक्षा सहयोग बढ़ाना चाहिए।
- भारतीय सेना को ‘मल्टी-थियेटर स्ट्रैटेजी’ के तहत पश्चिम एशिया के संकटों के प्रभाव से निपटने की योजना बनानी चाहिए।
4. सोशल मीडिया मॉनिटरिंग:
- फेक न्यूज़, जिहादी नैरेटिव और विदेश-प्रेरित प्रचार सामग्री को तुरंत चिन्हित कर कार्रवाई करनी चाहिए।
ईरान और इज़रायल के बीच वैचारिक मतभेद
ईरान और इज़रायल के बीच युद्ध सिर्फ दो देशों की दुश्मनी नहीं है। यह एक वैचारिक युद्ध है.
कट्टरपंथ बनाम आधुनिकता, आतंक बनाम सुरक्षा, दमन बनाम लोकतंत्र।
जहाँ एक और इज़रायल अपने लोकतंत्र और अस्तित्व की रक्षा के प्रति वचनबद्ध है.
वहीं, ईरान एक कट्टरपंथी शासन है, जो वैश्विक आतंकवाद को वैचारिक समर्थन देता है।
हमारी राय
भारत को अपनी विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा और सार्वजनिक विमर्श को इस संघर्ष के संदर्भ में पुनः परिभाषित करना होगा।
केवल सतर्कता ही नहीं, बल्कि सक्रिय रणनीतिक कदम समय की मांग है।
भारत को उस ‘चुप्पी के दायरे’ से बाहर निकलना होगा, जो कट्टरपंथियों को बल देता है।
भारत के लिए इज़रायल का समर्थन मात्र रणनीतिक नहीं बल्कि नैतिक भी है.
अब समय है बोलने का, खड़े होने का, और तय करने का कि भारत किस ओर है।
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यह लेख केवल शैक्षिक, सामाजिक और संवैधानिक विमर्श के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें व्यक्त विचार किसी धर्म, समुदाय या परंपरा को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि भारत जैसे बहुधार्मिक समाज में उभरते पर्यावरणीय, नैतिक, और सार्वजनिक हितों से संबंधित प्रश्नों को तथ्यात्मक और संतुलित दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने हेतु हैं। लेखक धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करता है और यह स्पष्ट करता है कि लेख में उल्लिखित सभी पहलू कानूनी, सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से विश्लेषण हैं — न कि धार्मिक हस्तक्षेप का प्रयास। यदि किसी व्यक्ति, समूह या संस्था को इस लेख से असुविधा हो तो कृपया उसे एक सकारात्मक विमर्श के रूप में लें, न कि विद्वेष के रूप में।
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