इस्लामिक कट्टरपंथ अब यह एक वैश्विक संकट बन चुका है.
इस्लामिक कट्टरपंथ, आज की दुनिया में ‘जिहादी आतंकवाद’, ‘धार्मिक उग्रवाद’ या ‘इस्लामी फासीवाद’ जैसे शब्दों से भी पहचाना जाता है.
इसमें केवल हिंसा ही नहीं बल्कि विचारधारा, फंडिंग, शिक्षा, राजनीति और कूटनीति तक घुलमिल चुकी है।
इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म हो सकता है.
लेकिन जब इसकी व्याख्या कट्टरपंथी रूप में की जाती है , तो यह एक वैचारिक युद्ध बन जाता है।
यह एक विकृत मानसिकता है जो लोकतंत्र को अस्वीकार करती है.
संविधान को ‘काफ़िरों का दस्तावेज’ मानती है, और समानता की अवधारणा को इस्लाम विरोधी ठहराती है।
कुछ मुस्लिम देश इस्लामिक कट्टरपंथ के या तो जन्मदाता हैं, या उसे संस्थागत रूप दे चुके हैं।
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तुर्की: ख़लीफा की भूख और नई उस्मानी सल्तनत की महत्वाकांक्षा
एक देश तुर्की, जो कभी यूरोप में धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशील इस्लामी शासन का उदाहरण माना जाता था. अब धीरे-धीरे एक उग्र इस्लामिक राष्ट्र की ओर बढ़ रहा है।
राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन की नीतियाँ साफ़ इशारा करती हैं कि वे उस्मानी सल्तनत की विरासत को फिर से जीवित करना चाहते हैं।
हागिया सोफिया को संग्रहालय से मस्जिद में बदलना, धार्मिक उपदेशों में खलीफा की वापसी की मांग, मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों से बढ़ती निकटता — यह सब उस वैचारिक युद्ध की तैयारी है जिसमें धर्म को सत्ता का औजार बना दिया गया है।
तुर्की की खुफिया एजेंसी MIT दुनिया के कई हिस्सों में इस्लामी शिक्षा और कट्टरपंथी मदरसों के माध्यम से वैचारिक घुसपैठ कर रही है। बांग्लादेश, भारत और अफ्रीका के कई देशों में तुर्की प्रायोजित संस्थान ‘दारुल-उलूम’ और ‘इमाम-हातिप स्कूल्स’ खोलकर एक विशेष प्रकार की इस्लामी शिक्षा दे रहे हैं, जो संविधान, लोकतंत्र और आधुनिकता को नकारती है।
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ईरान: शिया फासीवाद और वैचारिक आतंक की निर्यात नीति
कट्टरपंथ का एक अलग, लेकिन उतना ही खतरनाक स्वरूप है.
यहाँ इस्लाम शिया संस्करण में है और यह देश इस्लाम को एक क्रांतिकारी उपकरण की तरह उपयोग करता है।
ईरानी शासन स्वयं को ‘वलायत-ए-फकीह’ यानी इस्लामी विद्वान के शासन का केंद्र मानता है।
इसका अर्थ है — जनता नहीं, अल्लाह का नाम लेकर चलने वाले मुल्लाओं का शासन।
ईरान की विदेश नीति स्पष्ट रूप से ‘वैचारिक विस्तारवाद’ पर आधारित है।
उसने लेबनान में हिज़्बुल्लाह, यमन में हूती, इराक में मिलिशिया, सीरिया में असद शासन और अफगानिस्तान में भी कई शिया गुटों को हथियार और पैसा दिया है।
ईरान पश्चिमी लोकतंत्रों को ‘शैतान’ कहता है, इज़राइल को ‘नक्शे से मिटा देने’ की धमकी देता है और अपने नागरिकों पर हर उस विचार को कुचल देता है जो इस्लामी शासन के विरुद्ध हो।
ईरान की यह ‘कट्टरपंथी क्रांति निर्यात नीति‘ पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गई है।
यह न केवल धार्मिक उग्रता को वैध बनाती है, बल्कि इसे राजकीय संरक्षण भी देती है।
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पाकिस्तान: आतंकवाद की जन्मस्थली और वैश्विक इस्लामी फंडामेंटलिज्म का निर्यातक
इस्लामिक कट्टरपंथ का जीवंत प्रयोगशाला है, पाकिस्तान।
यहाँ शासन, सेना और मज़हब — तीनों मिलकर एक ऐसा राष्ट्र बना चुके हैं जो न केवल आतंकी संगठनों को पालता-पोसता है, बल्कि उन्हें कश्मीर से लेकर अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया तक फैलाता भी है।
पाकिस्तान की सेना ने ही तालिबान को जन्म दिया, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद को संरक्षण दिया, और अब हक्कानी नेटवर्क जैसे संगठनों को अफगानिस्तान में सक्रिय रखा है।
भारत में 26/11 हमलों से लेकर अमेरिका के खिलाफ ओसामा बिन लादेन को छिपाने तक, पाकिस्तान ने बार-बार यह साबित किया है कि वह आतंक का गढ़ है।
उसकी न्यायपालिका, राजनीतिक दल, और मीडिया – सभी ने कभी न कभी कट्टरपंथियों के सामने आत्मसमर्पण किया है।
पाकिस्तान का शिक्षा तंत्र (मदरसे), लाखों बच्चों को यह सिखाता है कि ‘काफिर’ (गैर-मुस्लिम) उनके अस्तित्व के लिए खतरा हैं।
वहां की पाठ्यपुस्तकों में भारत, यहूदी, ईसाई, और शियाओं के खिलाफ नफ़रत भरी होती है।
यह एक विचारधारा है जो एक सम्पूर्ण सभ्यता को मिटा देने की आकांक्षा रखती है।
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बांग्लादेश: धर्मनिरपेक्षता से कट्टरता की ओर
1971 में पाकिस्तान से अलग होकर धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ा था।
लेकिन 1980 के बाद से वहां एक संगठित तरीके से इस्लामी कट्टरता ने अपनी जड़ें जमाई।
जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों ने न केवल वैचारिक आतंक फैलाया, बल्कि सीधे हिंसा को अपनाया।
2013-15 में जब बांग्लादेश में ‘ब्लॉगर हत्याएँ’ हुईं, तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई।
इस्लाम के खिलाफ कुछ भी बोलना वहाँ मृत्यु को बुलावा देना है।
हिंदू, बौद्ध, और ईसाई अल्पसंख्यकों पर हमले आम बात हैं।
दुर्गा पूजा के दौरान दंगे, मंदिरों पर हमले, और जबरन धर्मांतरण — ये सब वहाँ की कट्टरता के जीवंत उदाहरण हैं।
सरकारी स्तर पर भले ही शेख हसीना की सरकार इन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करती दिखती हो, लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा अब कट्टरता की गिरफ्त में है, जिसमें लाखों युवा भी शामिल हैं।
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वैश्विक इस्लामी संगठनों की भूमिका: हिंसा, सत्ता और खिलाफत का सपना
इस्लामिक स्टेट (ISIS), अल-कायदा, तालिबान, हिज़्बुल्लाह, बोको हराम, अल-शबाब, हमास — ये केवल संगठन नहीं, एक वैश्विक नेटवर्क हैं।
इनका उद्देश्य ‘इस्लामी खिलाफत’ की स्थापना है, जिसमें राष्ट्र, संविधान, मानवाधिकार, महिला स्वतंत्रता, और धार्मिक सहिष्णुता का कोई स्थान नहीं होगा।
ISIS ने 2014 में सीरिया और इराक के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके एक तथाकथित ‘इस्लामी राज्य’ की घोषणा की।
इसने पूरे विश्व में मुस्लिम युवाओं को एकजुट होने का आह्वान किया और जिहाद को पवित्र कर्तव्य बताया।
यूरोप, एशिया और अमेरिका में कई हमलों के पीछे इसी विचारधारा का हाथ था।
तालिबान ने 2021 में अफगानिस्तान में फिर से शासन किया और एक बार फिर महिलाओं को शिक्षा से वंचित किया, विरोधियों को मौत दी, और शरिया कानून को बलपूर्वक लागू किया।
यह सिर्फ अफगानिस्तान की त्रासदी नहीं, बल्कि एक वैश्विक चेतावनी है कि कट्टरपंथ कैसे लोकतंत्र को रौंद डालता है।
डिजिटल जिहाद और सोशल मीडिया का दुरुपयोग
कट्टरपंथ अब केवल मस्जिदों और मदरसों तक सीमित नहीं है।
इंटरनेट, खासकर यूट्यूब, व्हाट्सएप, और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर यह एक डिजिटल महामारी बन चुका है।
ISIS जैसे संगठन सोशल मीडिया के माध्यम से कट्टरपंथी प्रचार सामग्री फैलाते हैं, भर्ती करते हैं, और फंडिंग जुटाते हैं।
YouTube पर मौजूद कई उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी भाषी इस्लामी चैनल खुलेआम काफिरों के विरुद्ध नफ़रत फैलाते हैं.
महिलाओं को दोयम दर्जे का मानते हैं, और लोकतंत्र को गाली देते हैं।
ये चैनल्स और पेज़ सेक्युलर ढांचे को चुनौती देते हैं और युवाओं को कट्टर बनाते हैं।
क्या इस्लाम ही समस्या है? नहीं, लेकिन उसका राजनीतिकरण अवश्य है
यह कहना गलत होगा कि इस्लाम धर्म स्वयं एक समस्या है।
दुनिया में करोड़ों मुसलमान शांति से रहते हैं, और उनके धर्म के भीतर भी सहिष्णुता की परंपराएं रही हैं।
लेकिन जब इस्लाम को ‘राजनीतिक इस्लाम’ या ‘पोलिटिकल इस्लाम’ बना दिया जाता है, तब समस्या पैदा होती है।
जब धर्म सत्ता के लिए इस्तेमाल होता है, जब पवित्र ग्रंथों की व्याख्या केवल युद्ध और नफरत के संदर्भ में की जाती है.
जब बच्चों को स्कूलों में जन्नत के सपने दिखाकर आत्मघाती बनाया जाता है — तब धर्म एक हथियार बन जाता है।
बहुलतावाद की चुनौती और कट्टरपंथ की घुसपैठ
भारत जैसे बहुलतावादी और संवैधानिक लोकतंत्र के लिए इस्लामी कट्टरता एक विशेष चुनौती है।
यहाँ की सामाजिक संरचना, धार्मिक विविधता और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर कट्टरपंथी ताकतें लगातार जमीन बना रही हैं।
पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) जैसे संगठन, जिन पर UAPA के तहत प्रतिबंध लगाया गया है, इसी वैचारिक जिहाद के हिस्से हैं।
भारत में ‘लव जिहाद’, ‘मदरसा कट्टरपंथ’, ‘सीएए विरोध’ और ‘दंगा संस्कृति’ जैसी घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि देश के भीतर ही कुछ ताकतें धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में संविधान को चुनौती दे रही हैं।
अब क्या विकल्प है?
इस्लामिक कट्टरपंथ का मुकाबला केवल सेना, पुलिस और बंदूक से नहीं हो सकता।
इसके लिए वैचारिक युद्ध लड़ना होगा।
उदार इस्लामी सोच को समर्थन देना होगा, मदरसों का आधुनिकीकरण करना होगा, शिक्षा में विज्ञान और मानवाधिकारों को शामिल करना होगा।
दुनिया को यह समझना होगा कि इस्लामिक आतंकवाद केवल मध्यपूर्व की समस्या नहीं है .
यह एक वैश्विक विचारधारा है, जिसका उद्देश्य लोकतंत्र का स्थान एक मजहबी तानाशाही से बदलना है।
जो देश, नेता और बुद्धिजीवी आज भी इस खतरे के प्रति आंखें मूँदकर बैठे हैं.
वे केवल अपने देशों को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की स्वतंत्रता को भी खतरे में डाल रहे हैं।
समय आ गया है जब मानवता को एकजुट होकर इस कट्टरपंथ को वैचारिक, कूटनीतिक और सामाजिक स्तर पर परास्त करना होगा।
इस्लाम नहीं बल्कि इस्लाम का राजनीतिकरण ही मानवता का शत्रु है।
यह अंतर समझे बिना कोई समाधान संभव नहीं।
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