पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की आग में एक बार फिर निर्दोष भारतीय नागरिक झुलस गए—इस बार जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में। जहाँ एक ओर आम भारतीय का आक्रोश आसमान छू रहा है, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार एक बार फिर वही घिसा-पिटा राग अलाप रही है—”कड़ी निंदा”, “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा”, “सर्जिकल स्ट्राइक के विकल्प खुले हैं”। पर क्या वास्तव में ये प्रतिक्रियाएं देश की सुरक्षा और सम्मान की रक्षा कर रही हैं? या फिर यह केवल एक सुनियोजित प्रोपेगेंडा है?
पहलगाम नरसंहार के लिए क्या संपूर्ण भारतीय मुस्लिम समाज को दोषी ठहराना उचित है?
पाकिस्तान की आदत: मासूमों की कुर्बानी
पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने के लिए हमेशा आतंकवाद को एक सॉफ्ट पावर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। 2001 संसद हमला, 2008 मुंबई हमला, 2016 उरी हमला, 2019 पुलवामा और अब 2025 पहलगाम नरसंहार—सभी में लक्षित आम भारतीय नागरिक और सैनिक ही बने हैं।
इन हमलों के बाद नज़र डालें तो एक समानता स्पष्ट रूप से उभरती है: सरकारें केवल बयान जारी करती हैं, लेकिन ठोस रणनीतिक सैन्य प्रतिशोध का अभाव दिखाई देता है।
पहलगाम हत्याकांड 2025: एक चुटकी सिन्दूर की कीमत…..
मोदी सरकार: आक्रोश या अभिनय?
मोदी सरकार ने 2014 से अब तक पाकिस्तान के खिलाफ एक मजबूत राष्ट्रवादी रुख का प्रदर्शन किया है। लेकिन हकीकत में यह केवल मंचीय राष्ट्रवाद प्रतीत होता है:
- पुलवामा हमले के बाद Balakot Air Strike को लेकर खूब प्रचार हुआ, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया के अनुसार इसका प्रभाव सीमित ही रहा।
- बार-बार LOC पर सीज़फायर उल्लंघन के बावजूद कूटनीतिक कदम आधे-अधूरे रहे।
- 2025 पहलगाम नरसंहार के बाद भी केवल “कड़ी निंदा” और “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा” जैसे जुमलों से ही काम चलाया जा रहा है।
क्या युद्ध सिर्फ कैमरों के लिए लड़ा जा रहा है?
ऐतिहासिक नेतृत्व: जब शब्द नहीं, कार्रवाई हुई
1. सरदार वल्लभभाई पटेल
1947-48 के कबायलियों के आक्रमण के समय पटेल ने तत्काल सैन्य कार्रवाई करवाई और पाकिस्तानी घुसपैठ को पीछे धकेल दिया। कश्मीर के मसले पर उनके रुख में कोई ढुलमुलपन नहीं था।
2. लाल बहादुर शास्त्री
1965 के भारत-पाक युद्ध में उनके “जय जवान, जय किसान” नारे के साथ भारत ने पाकिस्तान को युद्धक्षेत्र में निर्णायक जवाब दिया। ताशकंद समझौता से पहले युद्ध के मैदान में भारत ने आत्मबल दिखाया।
3. इंदिरा गांधी
1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान को विभाजित कर देने वाला कठोर निर्णय—यह था असली प्रतिशोध। न कोई प्रोपेगेंडा, न मीडिया ड्रामा; केवल योजना, साहस और ऐतिहासिक निर्णय।
गोदी मीडिया: कैमरों की जंग, जमीनी हकीकत से दूर
आज की मीडिया में “न्यूज रूम वारफेयर” शुरू हो चुकी है। स्टूडियो में बैठे एंकर युद्ध नीति और पाकिस्तान को सबक सिखाने की योजनाएं बना रहे हैं।
- Debate Anchors देशभक्ति का झंडा उठाकर “वॉर वर्सेस वॉर” खेल रहे हैं।
- TRP के भूखे चैनल युद्ध को मनोरंजन बना रहे हैं।
- ज़मीनी रिपोर्टिंग, जवानों की रणनीति, या वास्तविक राजनयिक चुनौतियों पर कोई गंभीर चर्चा नहीं होती।
जिन्हें देश की चेतना जगानी थी, वे जनता की संवेदना भुनाने में लगे हैं।
पहलगाम हमला और युद्ध की आहट: भारत की रणनीति का विश्लेषण
राजनीति और मीडिया का अपवित्र गठजोड़
पाकिस्तान प्रायोजित नरसंहार पर सबसे पहले राजनीतिक लाभ की तलाश शुरू होती है। किसी राज्य में चुनाव हो तो इसका रंग और गहरा हो जाता है। नतीजा?
- एक पक्ष इसे “हिंदू-मुस्लिम” मुद्दा बना देता है।
- दूसरा पक्ष इसे सरकार की विफलता कहकर राजनीतिक रोटियाँ सेंकता है।
- मीडिया और राजनीतिक गठबंधन केवल शोषण करते हैं—लाशों का, संवेदनाओं का, और सच्चाई का।
कब होगा असली प्रतिशोध?
भारत को पाकिस्तान से निपटने के लिए अब नारे नहीं, रणनीति, साहस और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। सर्जिकल स्ट्राइक या हवाई हमले से ज़्यादा ज़रूरी है:
- कूटनीतिक अलगाव
- अर्थव्यवस्था पर कठोर प्रतिबंध
- UN, OIC जैसे मंचों पर आक्रामक राजनयिक नीति
- आंतरिक खुफिया तंत्र की मजबूती
जब तक यह नहीं होगा, तब तक पहलगाम, पुलवामा और उरी जैसे हमले दोहराए जाते रहेंगे—और हम केवल टीवी डिबेट्स देखेंगे।
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